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________________ १०७ गा० २७] ट्ठाणसमुक्तित्तणा * दसण्हं खवगस्स इथिवेदे खीणे छसु कम्मसेसु अक्खीणेसु । $ २५७. दसण्हं संकमट्ठाणं खवगस्स होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । कम्हि अवस्थाए तं होइ त्ति उत्ते इथिवेदे खीणे छण्णोकसाएसु अक्खीणेसु होइ त्ति घेत्तव्यं, तत्थ सत्तणोकसाय-संजलणतियस्स संकमोवलंभादो। ॐ अथवा चउवीसदिकम्मंसियल्स कोधसंजलणे उवसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । $ २५८. चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहं कोहमुक्सामिय एक्कारसपयडीणं संकमंसामित्तेणावद्विदस्स कोहसंजलणोवसमे जादे पयदसंकमट्ठाणमुप्पजइ ति सुत्तत्थ क्षय होकर जब तक स्त्रीवेदका क्षय नहीं होता तब तक यह संक्रमस्थान होता है। इसके चार संज्वलन और आठ नोकषाय इन बारह प्रकृतियोंकी सत्ता है पर संक्रम संज्वलन लोभके बिना ग्यारह प्रकृतियोंका होता है। उपरामश्रेणिकी अपेक्षा प्रथम प्रकार इकस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके उपशमश्रेणि पर चढ़ते समय प्राप्त होता है। यह स्थान पुरुषवेदके उपशमके बाद होता है। इसमें संघलन लोभके बिना ग्यारह कवायों का संक्रम होता रहता है। उपशमश्रेणिकी अपेक्षा दुसरा प्रकार चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके उपशमणिपर चढ़ते समय प्राप्त होता है । यह स्थान अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण क्रोध इन दो प्रकारके क्रोधों के उपशान्त होने पर प्राप्त होता है। इसमें अप्रत्याख्यानावरण मान, माया, लोभ ये तीन, प्रत्याख्यानावरण मान, माया, लोभ ये तीन संचलन क्रोध, मान, माया ये तीन और दर्शनमोहनीयकी दो इस प्रकार इन ग्यारह प्रकृतियों का संक्रम होता रहता है। चौथा स्थान इसी जीवके उतरते समय संज्वलन क्रोधके उपशान्त रहते हुए प्राप्त होता है। इसके तीनों प्रकारके मान, माया और लोभ ये नौ और दर्शनमोहनीयकी दो इन ग्यारह प्रकृतियोंका संक्रम होता है। इस प्रकार ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके कुल भेद चार होते हैं यह सिद्ध हुआ। * क्षपक जीवके स्त्रीवेदका क्षय होकर छह नोकषायोंका क्षय नहीं होनेपर दस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। २५७. दस प्रकृतिक संक्रमस्थान क्षपकके होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। शंका-किस अवस्थाके होने पर वह होता है ? समाधान-स्त्रीवेदका क्षय होकर छह नोकषायोंके अक्षीण रहते हुए वह होता है ऐसा अर्थ लेना चाहिये, क्योंकि यहाँ सात नोकषाय और तीन संज्वलनोंका संक्रम उपलब्ध होता है। * अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके क्रोध संज्वलनका उपशम होकर शेष कषायोंके अनुपशान्त रहते हुए दस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। २५८. चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव दो प्रकारके क्रोधोंका उपशम कर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके स्वामीरूपसे अवस्थित है उसके क्रोध संज्वलनका उपशम हो जाने पर प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। यहाँ सूत्र में जो 'सेसकसाएसु १. ता प्रतौ पयडिसंकम इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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