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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९–१, २१.
जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मं पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि' ॥ २१ ॥
दंसणं अत्तागम-पदत्थे रुई पच्चओ सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो । तं मोहेदि विवरीयं कुणदिति दंसणमोहणीयं । जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी, अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेसु सद्धाए अस्थिरतं, दोसु विसद्धा या होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि । तं बंधादो एयविहं, मिच्छत्तादिपच्चए हि ढुक्कमाणाणं दंसणमोहणीयकम्मक्खंधाणमेगसहावाणमुवलंभा । बंधेण एयविहं दंसणमोहणीयं कथं संतादो तिविहत्तं पडिवज्जदे ! ण एस दोसो, 'जंतएण दलिज्जमाणकोवेसु कोदव्य तंदुलद्धतंदुलाणं व दंसणमोहणीयस्स अपुव्वादिकरणेहि दलिय स
जो दर्शनमोहनीय कर्म है वह बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकारका है - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ॥ २१ ॥
दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा, और स्पर्शन, ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं । आप्त या आत्मामें आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धाको दर्शन कहते हैं । उस दर्शनको जो मोहित करता है, अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे अनाप्तमें आप्त-बुद्धि, और अपदार्थमें पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त, आगम और पदार्थोंमें श्रद्धानकी अस्थिरता होती है; अथवा दोनोंमें भी अर्थात् आप्त-अनाप्तमें, आगम-अनागममें और पदार्थ अपदार्थमें श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीय कर्म है, यह अर्थ कहा गया है । वह दर्शनमोहनीय बंधकी अपेक्षा एक प्रकारका है, क्योंकि मिथ्यात्व आदि बंध- कारणोंके द्वारा आने वाले दर्शनमोहनीय कर्मके स्कन्धोंका एक स्वभाव पाया जाता है ।
शंका-बंध से एक प्रकारका दर्शनमोहनीय कर्म सत्त्वकी अपेक्षा तीन प्रकारका कैसे हो जाता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जांतेसे ( चक्कीसे) दले गये कोदों में कोदों, तन्दुल और अर्ध-तन्दुल, इन तीन विभागोंके समान अपूर्वकरण आदि परिणामोंके द्वारा दले गये दर्शनमोहनीयके त्रिविधता पाई जाती है ।
१ . सू. ८, ९. तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिभेदं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं तदुभयमिति । तद्वन्धं प्रत्येकं भूत्वा सत्कर्मापेक्षया त्रिधा व्यवतिष्ठते । स सि; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ९. दंसणमोहं तिविहं सम्म मीसं तहेव मिच्छत्तं । सुद्धं अद्भुविसुद्धं अविसुद्धं तं हवइ कमसो ॥ क. ग्रं. १, १४.
१ जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभावजंतेण । मिच्छं दव्वं च तिधा असंखगुणहीणदव्वकमा ॥ गो. क. २६.
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