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________________ १, ९-१, १६.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे दंसणावरणीय-उत्तरपयडीओ [३३ आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः । नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तंत्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणान्तरंगोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् । तत्र चक्षुर्ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदने रूपदर्शनक्षमोऽहमिति संभावनाहेतुश्चक्षुर्दर्शनम् । एतदावृणोतीति चक्षुदर्शनावरणीयम् । शेषेन्द्रिय-मनसां दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् । तदावृणोतीत्यचक्षुर्दर्शनावरणीयम् । अवधेर्दर्शनं अवधिदर्शनम् । तदावृणोतीत्यवधिदर्शनावरणीयम् । केवलमसपत्नं, केवलं च तद्दर्शनं च केवलदर्शनम् । तस्स आवरणं केवलदर्शनावरणीयम् । बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते, तन्न, सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषतः श्रुत-मनःपर्ययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात्, सामान्यग्रहणमन्तरेण विशेषग्रहणाभावतस्संसारावस्थायां ज्ञानदर्शनयोरक्रमेण प्रवृत्तिप्रसंगात् । न क्रमप्रवृत्तिरपि, सामान्यनिलंठितविशेषाभावतः तत्रावस्तुनि ज्ञानस्य प्रवृत्तिविरोधात् । न च ज्ञानस्य प्रामाण्यं वस्त्वपरिच्छेदकत्वात् । आत्मविषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं। इस दर्शनमें ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नकी पराधीनता नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो प्रयत्न-रहित, क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोगवाले केवल के अदर्शनत्वका प्रसंग आता है। उनमें चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी ज्ञानके उत्पन्न करनेवाले प्रयत्नसे संयुक्त स्वसंवेदनके होनेपर ' मैं रूप देखने में समर्थ हूं,' इस प्रकारकी संभावनाके हेतुको चक्षुदर्शन कहते हैं । इस चक्षुदर्शनके आवरण करनेवाले कर्मको चक्षुदर्शनावरणीय कहते हैं । चक्षुरिन्द्रियके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियोंके और मनके दर्शनको अचक्षुदर्शन कहते हैं । इस अचक्षुदर्शनको जो आवरण करता है वह अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म है । अवधिके दर्शनको अवधिदर्शन कहते हैं। उस अवधिदर्शनको जो आवरण करता है वह अवधिदर्शनावरणीय कर्म है। केवल यह नाम प्रतिपक्ष रहितका है। प्रतिपक्ष-रहित जो दर्शन होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं । उस केवलदर्शनके आवरण करनेवाले कर्मको केवलदर्शनावरणीय कहते हैं। वाह्य पदार्थको सामान्यरूपसे ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । किन्तु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि, सामान्य-ग्रहणके अस्तित्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे श्रुतज्ञान और मनःपर्यय-ज्ञान, इन दोनोंको भी दर्शनके अस्तित्त्वका प्रसंग आता है । अतएव सामान्य-ग्रहणके विना विशेषके ग्रहणका अभाव होनेसे संसार अवस्थामें ज्ञान और दर्शनकी अक्रम अर्थात् युगपत् प्रवृत्तिका प्रसंग आता है। तथा दर्शनकी उपर्युक्त परिभाषा माननेपर ज्ञान और दर्शनकी संसारावस्थामें क्रमशः प्रवृत्ति भी नहीं बनती है, क्योंकि सामान्यसे रहित विशेष कोई वस्तु नहीं है और अवस्तुमें ज्ञानकी प्रवृत्ति होनेका विरोध है । यदि अवस्तुमें ज्ञानकी प्रवृति मानी जायगी तो ज्ञानके प्रमाणता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि वह वस्तुका अपरिच्छेदक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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