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________________ ३४]] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-१, १७. न च विशेषमात्रं वस्तु, तस्यार्थक्रियाकर्तृत्वाभावात् । ततः सामान्यमात्मा, सकलार्थसाधारणत्वात्तद्विषय उपयोगो दर्शनमिति प्रत्येतव्यम् । केवलज्ञानमेव आत्मार्थावभासकमिति केचित्केवलदर्शनस्याभावमाचक्षते। तन्न, पर्यायस्य केवलज्ञानस्य पर्यायाभावतः सामर्थ्यद्वयाभावात् । भावे वा अनवस्था न कैश्चिन्निवार्यते । तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्वेतव्यम् । तत्र स्वावभासः केवलदर्शनम्, परावभासः केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञान-दर्शनयोः साम्यमिति चेन्न, ज्ञेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात् । इति शब्दः एतावदथै, दर्शनावरणीयस्य कर्मणः एतावत्य एव प्रकृतयो नाधिका इत्यर्थः।। वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ ॥ १७ ॥ एदं संगहणयसुत्तं, संगहिदासेसविसेसत्तादो । किमट्टमिदं उच्चदे ? मेहाविजकेवल विशेष कोई वस्तु भी नहीं है, क्योंकि, उसके अर्थक्रियाकी कर्तृताका अभाव है। इसलिये सामान्य नाम आत्माका है, क्योंकि, वह सकल पदार्थोंमें साधारण रूपसे व्याप्त है। इस प्रकारके सामान्यरूप आत्माको विषय करनेवाला उपयोग दर्शन है, ऐसा निश्चय करना चाहिये। केवलज्ञान ही अपने आपका और अन्य पदार्थोका जाननेवाला है, इस प्रकार मानकर कितने ही लोग केवलदर्शनके अभावको कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञान स्वयं पर्याय है। पर्यायके दूसरी पर्याय होती नहीं है, इसलिये केवलज्ञानके स्व और परकी जाननेवाली दो प्रकारकी शक्तियोंका अभाव है। यदि एक पर्यायके दूसरी पर्यायका सद्भाव माना जायगा तो आनेवाला अनवस्था दोष किसीके द्वारा भी नहीं रोका जा सकता है । इसलिये आत्मा ही स्व और परका जाननेवाला है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । उनमें स्व-प्रतिभासको केवलदर्शन कहते हैं, और पर-प्रतिभासको केवलशान कहते हैं। शंका-उक्त प्रकारकी व्यवस्था माननेपर केवलज्ञान और केवलदर्शनमें समानता कैसे रह सकेगी? समाधान-नहीं, क्योंकि, शेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभवके ज्ञानके प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। सूत्रके अंतमें दिया गया 'इति' यह शब्द 'एतावत्' अर्थका वाचक है, अर्थात् दर्शनावरणीय कर्मकी इतनी ही प्रकृतियां होती हैं, अधिक नहीं। वेदनीय कर्मकी दो प्रकृतियां हैं ॥ १७ ॥ यह सूत्र संग्रहनयके आश्रित है, क्योंकि, समस्त भेदोंको अपनेमें संग्रह करनेवाला है। शंका-यह संग्रहनयाश्रित सूत्र किसलिये कहा जा रहा है ? १ प्र. सा. १, २३. २ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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