SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-१, १६ वा मुहेण गलमाणलालो पुणो पुणो कंपमाणसरीर-सिरो णिभर सुवदि। थीणगिद्धीए तिव्बोदएण उट्ठाविदो वि पुणो सोवदि, सुत्तो वि कम्मं कुणदि, सुत्तो वि झंक्खइ, दंते कडकडावेई । णिदाए तिव्योदएण अप्पकालं सुबइ, उट्ठाविज्जतो लहुं उदि, अप्पसदेण वि चेअइ। पयलाए तिव्योदएण वालुवाए भरियाई व लोयणाई होंति, गरुषभारोड्डव्वं व सीसं होदि, पुणो पुणो लोयणाई उम्मिल्ल-णिमिल्लणं कुणंति', णिदाभरण पडतो लहु अप्पाणं साहारेदि, मणा मणा कंपदि, सचेयणो सुवदि । कधमेदेसिं पंचण्हं दंसणावरणववएसो ? ण, चेयणमवहरंतस्स सचदंसणविरोहिणो दंसणावरणत्तं पडि विरोहाभावा ।। किं दर्शनम् ? ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं गिरती हुई लार सहित तथा वार-बार कंपते हुए शरीर और शिर युक्त होता हुआ जीव निर्भर सोता है। स्त्यानगृद्धिके तीव्र उदयसे उठाया गया भी जीव पुनः सो जाता है, सोता हुआ भी कुछ क्रिया करता रहता है, तथा सोते हए भी वड़वड़ाता है और दांतोंको कड़कड़ कड़ाता है । निद्रा प्रकृतिके तीव्र उदयसे जीव अल्प काल सोता है, उठाये जानेपर जल्दी उठ बैठता है और अल्प शब्दके द्वारा भी सचेत हो जाता है। प्रचलाप्रकतिके तीव्र उदयसे लोचन वालुकासे भरे हुएके समान हो जाते हैं, सिर गुरु-भारको उठाये हुएके समान भारी हो जाता है और नेत्र पुनः पुनः उन्मीलन एवं निमीलन करने लगते हैं । निद्रा प्रकृतिके उदयसे गिरता हुआ जीव जल्दी अपने आपको सम्हाल लेता है, थोड़ा थोड़ा कंपता रहता है और सावधान सोता है। शंका-इन पांचों निद्राओंके दर्शनावरण संज्ञा कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, आत्माके चेतन गुणको अपहरण करनेवाले और सर्व दर्शनके विरोधी कर्मके दर्शनावरणत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है। शंका-दर्शन किसे कहते हैं ? समाधान-ज्ञानका उत्पादन करनेवाले प्रयत्नसे सम्बद्ध स्व संवेदन, अर्थात् १ या क्रियाऽत्मानं प्रचलयति सा प्रचला शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगावविक्रियासूचिका । सैव पुनः पुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचला। स. सि; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ७. पयलापयलदयेण य वहेदि लाला चलंति अंगाई गो. क. २४. पयलापयला उ चकमओ ।। क ग्रं. १, ११. २ स्वप्नेपि यया वीर्य विशेषाविर्भावः सा स्त्सानग्राद्धः। स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८,७. थीणुदयेणुढविदे सोवदि कम करेदि जप्पदि या गो. क. २३. दिणपिंतिअत्थकरणी थीणद्धी अदचकिअबला। क. ग्रं. १, १२. ३ णिद्ददये गच्छंतो ठाइ पुणो वइसइ पडेइ ॥ गो क. २४. सहपडिबोहा निद्दा । क. ग्रं. १, ११. ४ पयलुदयेण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेइ सुत्तो वि। ईसं ईसं जाणदि मुहं मुहं सोवदे मंदं। गो. क. २५. पयला ठिओवविठ्ठस्स । क. पं. १, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy