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१, ९–१, १६. ] चूलियाए पगडिसमुक्कित्तणे दंसणावरणीय-उत्तरपयडीओ संभवो, आवरणणिबंधणाणं तदभावे संभवविरोहादो' | दंसणावरणीयस्स कम्मस्स णव पयडीओ ॥ १५ ॥ एवं व्त्रयिणयमस्सिदूण ट्ठिदं सुतं संगहिदासेसविसेसत्तादो । कथं संगहादो विसेसो णव्वदे ? ण, बीजबुद्धीणं तदा तदवगमे विरोहा भावा । पज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्टमुत्तरमुत्तं भणदि
णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य, चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेदि ॥ १६ ॥
तत्थ णिद्दाणिद्दाए तिव्बोदरण रुक्खग्गे विसमभूमीए जत्थ वा तत्थ वा देसे घोरंतो अघोरंतो वा णिब्भरं सुवदि । पयलापयलाए तिब्वोदएण वइटुओ वा उन्भवो भगवान् में उनका होना संभव नहीं है, क्योंकि, आवरणके निमित्तसे होने वाले शानोंका आवरणोंके अभाव होनेपर होना विरुद्ध है ।
दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रकृतियां हैं ॥ १५ ॥
यह सूत्र द्रव्यार्थिकनयका आश्रय लेकर स्थित है, क्योंकि, उसमें समस्त विशेपोंका संग्रह किया गया है ।
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शंका-संग्रहनयसे विशेष कैसे जाना जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, बीज- बुद्धिवाले शिष्योंके संग्रहनयसे विशेषका ज्ञान होने में कोई विरोध नहीं है ।
अब पर्यायार्थिक नयवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिये उत्तर सूत्र कहते हैंनिद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला; तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, ये नौ दर्शनावरणीय कर्मकी उत्तर - प्रकृतियां हैं ॥ १६॥
उनमें निद्रानिद्रा प्रकृतिके तीव्र उदयसे जीव वृक्षके शिखरपर, विषम भूमिपर, अथवा जिस किसी प्रदेशपर घुरघुराता हुआ या नहीं घुरघुराता हुआ निर्भर अर्थात् गाढ निद्रा में सोता है । प्रचलाप्रचला प्रकृतिके तीव्र उदयसे बैठा या खड़ा हुआ मुंहसे
१ ××× (केवलज्ञानस्य ) क्षायिकत्वात् संक्षीणसकलज्ञानावरणे भगवत्यर्हति कथं क्षायोपशमिकानां ज्ञानानां संभवः । न हि परिप्राप्तसर्वशुद्धौ प्रदेशाशुद्धिरस्ति । त. रा. वा. १, ३०, ८.
२ चक्षुरचक्षुरधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्भूयश्च ॥ त. सू.८, ७.
३ मदखेदक्लमत्रिनोदार्थं स्वापो निद्रा । तस्या उपर्युपरि वृत्तिर्निद्रानिद्रा । स. सि. ८, ७.; त. रा. वा. ८, ७.; त. लो. वा. ८, ७. णिद्दाणिदुयेण य ण दिट्ठिमुग्वादिदुं सको ! गो. क. २३. णिद्दाणिद्दा य दुक्खपडिबोहा । क. अं. १, ११.
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