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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-१, १४. पसज्जदे, जहासरूवेण परिच्छित्तीदो । ण गद्दहसिंगेण विउचारो, तस्स अच्चंताभावरूवत्तादो। एदस्स आवरणं केवलणाणावरणीयं । केवलिम्हि किमेक्कं चेव णाणं, आहो पंच वि अत्थि ति । ण पढमपक्खो, आवरणिज्जाभावादो चदुण्हमावरणाणमभावप्पसंगादो। ण विइज्जओ पक्खो वि, पच्चक्खापच्चक्ख-परिमियापरिमिय-केवलाकेवलकमाकमणाणाणमेयत्थ अक्कमेण संभवविरोहा इदि ? एत्थ परिहारो उच्चदे--- ण विइज्जपक्खउत्तदोससंभवो, अणब्भुवगमादो । ण पढमपक्खउत्तदोससंभवो वि, आवरणवसेण समुप्पण्णमदिणाणादिचदुण्हमावरणिज्जाणमुवलंभादो । ण खीणावरणिज्जे तेसिं
वह यथार्थस्वरूपसे पदार्थोंको जानता है। और न गधेके सींगके साथ व्यभिचार दोष आता है, क्योंकि, वह अत्यन्त अभावरूप है।
विशेषार्थ- यहां उक्त शंका-समाधानमें केवलज्ञानके नष्ट और अनुत्पन्न वस्तु ओंके जाननेकी शक्तिके सम्बन्धमें तीन बातोंका स्पष्टीकरण किया गया है- चूंकि, केवल शान सहाय-निरपेक्ष है, अतः वह वस्तुकी वर्तमान पर्यायके समान अतीत और अनागत पर्यायोंकी अपेक्षा नहीं रखता । वह स्वभावतः यथार्थ ज्ञायक है, इसलिए उसमें विपर्ययत्व आनेकी संभावना नहीं है । तथा, नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओंका यद्यपि वर्तमानमें सदभाव नहीं है, तथापि उनका अत्यन्ताभाव नहीं है और इसीलिए अत्यन्ताभाववाले गधेके सींगके साथ उसका व्यभिचार नहीं आता है।
इस केवलज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मको केवलज्ञानावरणीय कहते हैं।
शंका-केवलीभगवान्में क्या एक ही ज्ञान होता है, अथवा पांचों ही शान होते हैं । प्रथम पक्ष तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि आवरणीय अर्थात् आवरण करने योग्य शानोंके अभाव होनेसे मतिज्ञानावरणादि चारों आवरण कौके अभावका प्रसंग आता है। न दूसरा पक्ष भी माना जा सकता है, क्योंकि, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, परिमितअपरिमित, असहाय-सहाय और क्रम-अक्रमरूप पांचों झानोंका एक आत्मामें एक साथ रहनेका विरोध है ?
समाधान-यहां पर उक्त शंकाका परिहार कहते हैं-दूसरे पक्षमें कहा गया दोष तो संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा, अर्थात् पांचों ज्ञानोंका एक साथ रहना, माना नहीं गया है। और न प्रथम पक्षमें कहा गया दोष भी संभव है, क्योंकि, आवरणके वशसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानादि चारों आवरणीय ज्ञान पाये जाते हैं। क्षीणावरणीय केवली
१ प्रतिषु ' केवलम्हि ' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः किमिक्कं ' कतौ किमेक्कं ' मप्रती · किमिएक्कं ' इति पाठः।
३ प्रतिषु ण विइज्जओ पक्खो' इति स्थाने 'विइज्जओ' इति पाठः । मप्रतीण चिज्जदि पच्चो' इति पाठः।
४ प्रतिषु 'मेयत्त' इति पाठः। ५ केवलस्यासहायत्वादितरेषां च क्षयोपशमानिमित्तत्वाधींगपद्याभावः । त.रा.वा. १,३०, ७.
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