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१, ९-१, १४.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे केवलणाणावरणीयं
[२९ ओहि-मणपज्जवणाणाणं को विसेसो ? उच्चदे- मणपज्जवणाणं विसिट्ठसंजमपच्चयं, ओहिणाणं पुण भवपच्चयं गुणपच्चयं च । मणपज्जवणाणं मदिपु चेव, ओहिणाणं पुण ओहिदंसणपुव्वं । एसो तेसिं विसेसो । मणपज्जवणाणस्स आवरणं मणपज्जवणाणावरणीयं ।)
केवलमसहायमिंदियालोयणिरवेक्खं तिकालगोयराणंतपज्जायसमवेदाणंतवत्थुपरिच्छेदयमसंकुडियमसवत्तं केवलणाणं । णट्ठाणुप्पण्णअत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो ? ण, केवलत्तादो बज्झत्थावेक्खाए विणा तदुप्पत्तीए विरोहाभावा । ण तस्स विपज्जयणाणत्तं
शंका-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनों ज्ञानों में क्या भेद है ?
समाधान- मनःपर्ययज्ञान विशिष्ट संयमके निमित्तसे उत्पन्न होता है, किन्तु अवधिज्ञान भवके निमित्तसे और गुण अर्थात् क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न होता है । मनापर्ययज्ञान तो मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, किन्तु अवधिज्ञान अवधिदर्शनपूर्वक होता है । यह उन दोनों ज्ञानोंमें भेद है।
___ इस प्रकारके मनःपर्ययज्ञानका आवरण करनेवाला कर्म मनःपर्ययज्ञानावरणीय कहलाता है।
केवल असहायको कहते हैं । जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोककी अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे समवायसम्बन्धको प्राप्त अनन्त वस्तुओंका जाननेवाला है, असंकुटित अर्थात् सर्वव्यापक है, और असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है उसे केवलझान कहते हैं।
शंका-जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं, और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनका केवलज्ञानसे कैसे ज्ञान हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानके सहाय-निरपेक्ष होनेसे बाह्य पदा. र्थोकी अपेक्षाके विना उनके, अर्थात् नट और अनुत्पन्न पदार्थोंके, ज्ञानकी उत्पत्तिमें कोई विरोध नहीं है । और केवलझानके विपर्ययज्ञानपनेका भी प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि,
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१ अथानयोरवधिमनःपर्यययोः कुतो विशेष इत्यत आह-स. सि. १, २५. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः । त. सू. १, २५.
२ बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो माग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलं । असहायमिति वा । स. सि. १, ९. बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषात् यदर्थ केवन्ते तत्केवलम् । अव्युत्पन्नो वाऽसहायार्थः केवलशब्दः । त. रा. वा. १, ९. क्षायोपशमिक ज्ञानासहायं केवलं मतम् । यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते वा तदिष्यते ॥ त. श्लो. वा. ., ९, ८. संपुण्णं तु समगं केवलमसवच सबभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदवं ॥ गो. जी. ४५९. केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । वि. आ. भा. ८४.
३ प्रतिषु ' बझदाए क्खाए' इति पाठः ।
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