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________________ २८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-१, १४. णाणस्स वि एसो कमो, तस्स वट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ट-वत्थुपरिच्छेयणसत्तीए अभावादो, तस्स पच्चक्खग्गहणणियमाभावादो च । अत्रोपयोगी श्लोकः - (नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ॥ ६ ॥ एवंविहस्स ओहिणाणस्स जमावारयं तमोहिणाणावरणीयं । परकीयमनोगतोऽर्थो मनः, तस्य पर्यायाः विशेपाः मनःपर्ययाः, तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम् । तं च मणपज्जवणाणं दुविहं उजुमइ-विउलमइभेएण ।। तत्थ उजुमई चिंतियमेव जाणदि, णाचितियं । चिंतियं पि जाणमाण उज्जुवेण चिंतियं चेव जाणदि, ण वकं चिंतियं । विउलमई पुण चिंतियमचिंतियं पि वकचिंतियमवकचिंतियं पि जाणदि । मतिज्ञानका भी यही क्रम मान लेंगे, सो नहीं माना जा सकता, क्योंकि, मतिज्ञानके वर्तमान अशेष पर्याय-विशिष्ट वस्तुके जानने की शक्तिका अभाव है, तथा मतिज्ञानके प्रत्यक्षरूपसे अर्थ-ग्रहण करनेके नियमका अभाव है। इस विषयमें यह उपयोगी श्लोक है जो नैगम आदि नय और उनके भेद-प्रभेदरूप उपनयोंके विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायोंका अभिन्न सम्बन्धरूप समुदाय है, उसे द्रव्य कहते हैं। वह द्रव्य कथंचित् एकरूप और कथंचित् अनेकरूप है ॥ ६॥ इस प्रकारके अवधिज्ञानका आवरण करनेवाला जो कर्म है, उसे अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। दूसरे व्यक्ति के मनमें स्थित पदार्थ मन कहलाता है। उसकी पर्यायों अर्थात् विशेषोंको मनःपर्यय कहते हैं । उनको जो ज्ञान जानता है वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है।वह मनःपर्ययज्ञान ऋजमति और विपुलमतिके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें ऋजमति मनःपर्ययज्ञान मनमें चिन्तवन किये गये पदार्थको ही जानता है, अचिन्तित पदार्थको नहीं। चिन्तित भी पदार्थको जानता हुआ सरल रूपसे चिन्तित पदार्थको ही जानता है, वक्ररूपसे चिन्तित पदार्थको नहीं। किन्तु, विपुलमति मनःपर्ययज्ञान चिन्तित, अचि. न्तित पदार्थको भी, तथा वक्र-चिन्तित और अबक्र चिन्तित पदार्थको भी जानता है। १ आ. मी. १०७. २परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते, साहचर्यात्तस्य पर्ययणं परिगगनं मनःपर्ययः । स.सि ५, ९. मनःप्रतीत्य प्रतिसंधाय वा ज्ञान मनःपर्ययः । त. रा. वा. १, ९,xxx मनःपर्येति योऽपि वा । स मनपर्ययो मेयो मनोनार्था मनोगताः। परेषां स्वमनो वापि तदालम्बनमारकम् ॥ त. लो. वा. १, ५, ७. पनवणं पन्जयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वा । तस्स व पन्जायादिन्नाणं मणप-जवं नाणं ॥ वि. आ. भा. ८३. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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