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१, ९-१, १४.] चूलियाए पगडिसमुक्कित्तणे ओहिणाणावरणीय
[२७ जदि एवं, तो ओहिणाणस्स वि पञ्चक्ख-परोक्खत्तं पसज्जदे, तिकालगोयराणंतपज्जाएहि उवचियं वत्थू, ओहिणाणस्स पच्चक्खेण तारिसवत्थुपरिच्छेदणसत्तीए अभावादो इदि चे ण, ओहिणाणम्मि पच्चक्खेण वट्टमाणासेसपज्जायविसिट्टवत्थुपरिच्छित्तीए उवलंभा, तीदाणागद-असंखेज्जपज्जायविसिट्ठवत्थुदंसणादो च । एवं पि तदो वत्थुपरिच्छेदो णत्थि त्ति ओहिणाणस्स पचक्ख-परोक्खत्तं पसज्जदे ? ण, उभयणयसमूहवत्थुम्मि ववहारजोगम्मि
ओहिणाणस्स पच्चक्खत्तुवलंभा । ण चाणंतवंजणपज्जाए ण घेप्पदि त्ति ओहिणाणं वत्थुस्स एगदेसपरिच्छेदयं, ववहारणयवंजणपज्जाएहि एत्थ वत्युत्तब्भुवगमादो। ण मदि
विशेषार्थ-यहांपर जो मतिज्ञानको प्रत्यक्षाप्रत्यक्षात्मक परोक्ष कहा है उसका अभिप्राय यह है कि इन्द्रियोंके द्वारा वस्तुका जितना अंश स्पष्टरूपसे जाना जाता है उतने अंशमें वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, और अवशिष्ट जितना अंश नहीं जाना जाता है उसकी अपेक्षा वही ज्ञान अप्रत्यक्ष है । यहां प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष शब्दोंका प्रयोग लोकव्यवहार की अपेक्षासे किया गया है। किन्तु आगममें मतिज्ञानको परोक्ष ही माना है। इन्हीं दोनों अपेक्षाओंसे यहांपर मतिज्ञानको प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप परोक्ष कहा गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके भी प्रत्यक्ष-परोक्षात्मकता प्राप्त होती है, क्योंकि, वस्तु त्रिकाल-गोचर अनन्त पर्यायोसे उपचित है, किन्तु अवधिज्ञानके प्रत्यक्ष द्वारा उस प्रकारकी वस्तुके जाननेकी शक्तिका अभाव है ?
समाधान नहीं, क्योंक, अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्यायविशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है, तथा भूत और भावी असंख्यात पर्याय-विशिष्ट वस्तुका शान देखा जाता है।
शंका-इस प्रकार माननेपर भी अवधिज्ञानसे पूर्ण वस्तुका ज्ञान नहीं होता है, इसलिये अवधिज्ञानके प्रत्यक्ष-परोक्षात्मकता प्राप्त होती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, व्यवहारके योग्य, एवं द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नयोंके समूहरूप वस्तुमें अवधिज्ञानके प्रत्यक्षता पाई जाती है।
अवधिज्ञान अनन्त व्यंजनपर्यायोंको नहीं ग्रहण करता है, इसलिये वह वस्तुके एकदेशका जाननेवाला है, ऐसा भी नहीं जानना चाहिये, क्योंकि, व्यवहारनयके योग्य व्यंजनपर्यायोंकी अपेक्षा यहां पर वस्तुत्व माना गया है । यदि कहा जाय कि स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ प्रादेशिकं प्रत्यक्षम्, अवग्रहहावायधारणात्मकम् । अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् स्मृतिसंज्ञाचिन्ताभिनिबोधात्मकम् । अतीन्द्रियप्रत्यक्षं व्यवसायात्मकं स्फुटमवितथमीन्द्रियमव्यवधानं लोकोत्तरमात्मार्थविषयम् । लघीय. स्वो. वि. का. ६१, पृ. २१. प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं विधेति ब्रुवाणेनापि (अकलंकेन) मुख्यमतीन्द्रियं पूर्ण केवलमपूर्णमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं चेति निवेदितमेव, तस्याक्षमात्मानमाश्रित्य वर्तमानत्वात् । व्यवहारतः पुनरिन्द्रियप्रत्यक्षमनिन्द्रियप्रत्यक्षमिति वैशद्यांशसद्भावात् ॥ त. श्लो. वा. १, ११. पृ. १८२.
१ मप्रतौ — उपरियं ' इति पाठः ।
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