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________________ २६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-१, १४. एदेसिं सरूवपरूवणमुवरि कस्सामो । मदि-सुदणाणेहिंतो एदस्स सावहियत्तेण भेदाभावा पुधपरूवणं णिरत्थयमिदि चे, ण एस दोसो, मदि-सुदणाणाणि परोक्खाणि, ओहिणाणं पुण पञ्चक्ख तेण तेहिंतो तस्स भेदुवलंभा । मदिणाणं पि पच्चक्खं दिस्सदीदि चे ण, मदिणाणेण पच्चक्खं वत्थुस्स अणुवलंभा। जो पच्चक्खमुवलब्भइ, सो वत्थुस्स एगदेसो त्ति वत्थू ण होदि । जो वि वत्थू, सो वि ण पच्चक्खेण उवलब्भदि, तस्स पच्चक्खापच्चक्खपरोक्खमइणाणविसयत्तादो। तदो मदिणाणं पच्चक्खेण ण वत्थुपरिच्छेदयं । वह अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके भेदसे तीन प्रकारका है। इन तीनों भेदोंके स्वरूपका निरूपण आगे करेंगे। शंका-अवधि अर्थात् मर्यादा-सहित होनेकी अपेक्षा अवधिज्ञानका मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, इन दोनोंसे कोई भेद नहीं है; इसलिये इसका पृथक् निरूपण करना निरर्थक है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। किन्तु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसलिये उक्त दोनों शानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। शंका-मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानसे वस्तुका प्रत्यक्ष उपलम्भ नहीं होता है। मतिज्ञानसे जो प्रत्यक्ष जाना जाता है वह वस्तुका एकदेश है; और वस्तुका एकदेश सम्पूर्ण वस्तुरूप नहीं हो सकता है। जो भी वस्तु है वह मतिज्ञानके द्वारा प्रत्यक्षरूपसे नहीं जानी जाती है, क्योंकि, वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप परोक्ष मतिज्ञानका विषय है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मतिज्ञान प्रत्यक्षरूपसे वस्तुका जाननेवाला नहीं है। अवहीयदि ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समये । गो. जी. ३६९. अवायन्ति व्रजन्तीत्यवायाः पुद्गलाः, तान् दधाति जानातीत्यवधिः । अवाग्धानात्पुद्गलपरिज्ञानादित्यर्थः । द्रव्यक्षेत्रकालभावनियतत्वेनावधीयते नियम्यते प्रमीयते परिच्छद्यत इत्यर्थः। अवधानं अवधिः। कोऽर्थः ? अधस्ताद्वहुतरविषयग्रहणादवधिरुच्यते । दे अवधिज्ञानेन सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति | उवरि स्तोकं पश्यान्त निजविमानध्वजदंडपर्यन्तमित्यर्थः। स.सि.टि.पृ.६.. तणावहीयए तम्मि वाऽवहाणं तओऽवही सो य । मज्जाया जं तीए दव्वाइ परोप्परं मुणइ ॥ वि. आ. भा. ८२. १ प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा xxx इन्द्रियप्रत्यक्षम् अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् अतीन्द्रियप्रत्यक्षम् । प्रमाणसं. पृ. ९७ . प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥३॥ हिताहिताप्तिनिर्मुक्तिक्षममिन्द्रियनिर्मितम् । यद्देशतोऽर्थज्ञानं तदिन्द्रियाध्यक्षमुच्यते ॥ ४॥ सदसज्ज्ञानसंवादविसंवादविवेकतः। सविकल्पाविनाभावी समक्षेतरसम्प्लवः ॥ ५॥ लक्षणं सममेतावान् विशेषोऽशेषगोचरम् ॥ १६८ ॥ अक्रमं करणातीतमकलकं महीयसाम् ॥ १६८१ ॥ ( कथं तर्हि मतिज्ञानस्यैवं अवग्रहादिभेदस्य प्रत्यक्षत्वमुक्तं आत्ममात्रापेक्षत्वादिति चेदत्राह-) केवलं लोकबुद्धथैव मतेर्लक्षणसंग्रहः ॥ ४७४६॥ न्यायविनिश्चय. पृ. ९३ . इन्द्रियार्थज्ञानं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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