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________________ १, ९–१, १४. ] चूलियाए पगडिसमुक्कित्तणे ओहिणाणावरणीयं [ २५ पाहुडपाहुडसमासो गच्छदि जावेगक्ख रेणूणपाहुडेत्ति । तस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पाहुडो होदि' । एदस्सुवरि एगवखरे वड्ढिदे पाहुडसमासो होदि । एवमेगेगक्खरखड्डिकमेण पाहुडसमासो गच्छदि जाव एगक्खरेणूणवीसदियपाहुडो ति । एदस्सुवरि एगक्खरे बड्डिदे वत्थुसुदणाणं होदि । तस्सुवरि एगक्खरे वडिदे वत्थुसमासो होदि । एवं वत्थुसमासो गच्छदि जाव एगक्खरेणूणअंतिमवत्थु ति । एदस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पुत्रं णाम सुदा होदि । तस्वरि एगक्खरे वडिदे पुव्वसमासो होदि । एवं पुव्वसमासो गच्छदि जाव लोगबिंदुसारचरिमक्खरं ति । एदस्स सुदणाणस्स आवरणं सुदणाणावरणीयं । अवाग्धानादवधिः, अवधिश्च स ज्ञानं च तत् अवधिज्ञानम् । अथवा अवधिर्मर्यादा, अवधेर्ज्ञानमवधिज्ञानम् । तं च ओहिणाणं तिविहं, देसोही परमोही सच्चोही चेदि । • इसके ऊपर एक अक्षर आदिकी वृद्धिके क्रमसे प्राभृतप्राभृत-समास तब तक बढ़ता हुआ जाता है, जब तक कि एक अक्षरसे कम प्राभृत नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । उस प्राभृत श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरके बढ़नेपर प्राभृत- समास नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है | इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे प्राभृतसमास नामक श्रुतज्ञान तब तक बढ़ता हुआ जाता है जब तक कि एक अक्षरसे कम वीसवां प्राभृत प्राप्त होता है । इस वीसवें प्राभृतके ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञानके बढ़नेपर वस्तु नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । उस वस्तु श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु-समास नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार वस्तु समास नामक श्रुतज्ञान तब तक बढ़ता हुआ जाता है जब तक कि एक अक्षरसे कम अन्तिम वस्तु नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । इस अन्तिम वस्तु श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्वनामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । उस पूर्वनामक श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्वसमास नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । इस प्रकार पूर्व-समास श्रुतज्ञान बढ़ता हुआ तब तक जाता है, जब तक कि लोकविन्दुसार नामक चौदहवें पूर्वका अन्तिम अक्षर उत्पन्न होता है । इस प्रकारके श्रुतज्ञानका आवरण करने वाला कर्म श्रुतज्ञानावरणीय कहलाता है । जो नीचे की ओर प्रवृत्त हो, उसे अवधि कहते हैं । अवधिरूप जो ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान कहलाता है । अथवा अवधि नाम मर्यादाका है, इसलिये द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विषय सम्बन्धी मर्यादाके ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं । १ दुगवारपाहुडादो उवरिं वण्णे कमेण चवीसे । दुगवारपाहुडे संउड्ढे खलु होदि पाहुडयं ॥ गो. जी. ३४१. २ वीसं वीसं पाहुड अहियारे एक्कवत्थुअहियारो । एक्केकवण्णउड्डी कमेण सव्त्रत्थ णायच्वा ॥ गो. जी. ३४२. ३ अवाग्धानादवच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः । स. सि. १, ९. अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाद्युभयहेतुसन्निधाने सत्यवधीयतेऽवाग्दधात्यवाग्धानमात्रं वावधिः । अवधिशब्दोऽधः पर्यायवचनः यथाधः क्षेपणमवक्षेपणं, इत्यधोगतभूयोद्रव्यविषयो ह्यवधिः । अथवावधिर्मर्यादा, अवधिना प्रतिबद्धं ज्ञानमवधिज्ञानम् । त. रा. वा. १, ९. अवध्यावृतिविध्वंसविशेषादवधीयते । येन स्वार्थोऽवधानं वा सोऽवधिर्नियता स्थितिः ॥ त श्लो. वा. १, ९, ५०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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