SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ ] छद खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९–१, १४. णूणपडिवत्तिदणाणेत्ति । जत्तिएहि देहि एयगइ - इंदिय-काय - जोगादओ परूविज्जंति, तेसिं पडिवत्तीसण्णा' । पडिवत्तीए उवरि एगक्खरसुदणाणे वड्ढिदे पडिवत्तिसमासो णाम सुदणाणं होदि । एवं पडिवत्तिसमासो चेव होदूण गच्छदि जाव एगक्खरेणूणअणियोगद्दारसुदणाणेति । जत्तिएहि पदेहि चोदसमग्गणाणं पडिबद्धेहि जो अत्थो जाणिज्जदि सिं पदाणं तत्थुप्पण्णणाणस्स य अणिओगो त्ति सण्णा' । तस्सुवरि एगक्खरसुदणाणे वडिदे अणियोगसमासो होदि । एवमणियोगसमाससुदणाणं एगेगक्खरुत्तरवड्डीए वड्डाणं गच्छदि जाव एगक्ख रेणूणपाहुडपाहुडेति । तस्सुवरि एगक्खरसुदणाणे वड्डिदे पाहुडपाहुडं होदि । संखेज्जेहि अणियोगसुदणाणेहि एगं पाहुडपाहुडं णाम सुदणाणं होदि । तस्वरि गक्खवडिदे पाहुडपाहुडसमासो होदि । एदस्सुवरि एगक्खरादिवड्डिकमेण वढ़ता हुआ जाता है जब तक कि एक अक्षरश्रुतज्ञानसे कम प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । जितने पदोंके द्वारा एक गति, इन्द्रिय, काय और योग आदि मार्गणा प्ररूपित की जाती है, उतने पदोंकी 'प्रतिपत्ति' यह संज्ञा है । प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञानके बढ़नेपर प्रतिपत्ति-समास नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान ही बढ़ता हुआ तब तक चला जाता है, जब तक कि एक अक्षरसे कम अनुयोगद्वार नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । चौदह मार्गणाओंसे प्रतिबद्ध जितने पदोंके द्वारा जो अर्थ जाना जाता है, उतने पदोंकी और उनसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानकी 'अनुयोग' यह संज्ञा है । उस अनुयोग श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरप्रमाण श्रुतज्ञानके बढ़नेपर अनुयोग-समास नामक श्रुतज्ञान, होता है । इस प्रकार अनुयोगसमास नामक श्रुतज्ञान एक एक अक्षरकी उत्तर- वृद्धिसे बढ़ता हुआ तब तक जाता है जब तक कि एक अक्षरसे कम प्राभृतप्राभृत नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । उसके ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञानके बढ़नेपर प्राभृतप्राभृत नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । संख्यात अनुयोगद्वाररूप श्रुतज्ञानोंके द्वारा एक प्राभृतप्राभृत नामक श्रुतज्ञान होता है । उस प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञानके बढ़नेपर प्राभृतप्राभृत-समास नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । १ एक्कदरगदिणिरुवयसंघादसुदाद् उवरि पुव्वं वा । वण्णे संखेज्जे संघादे उड्डम्म पडिवती ॥ गो. जी. ३३७. २ चउगइसरूवरूवयपडिवतीदो दु उवरि पुव्वं वा । वण्णे संखेज्जे पडिवचीउडम्मि अणियोगं ॥ गो. जी. ३३८. ३ चोदसमग्राणसंजुद अणियोगादुवरि वडिदे वण्णे । चउरादी अणियोगे दुगवारं पाहुडं होदि ॥ अहियारो पाहुडयं एयट्ठो पाहुडस्स अहियारो । पाहुडपाहुडणामं होदि त्ति जिणेहिं णिद्दिद्धं ॥ गो. जी. ३३९-३४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy