SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-१, १४.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे सुदणाणावरणीय [२१ चेय देवदत्तस्स य गहणस्स अणिस्सिदववदेसादो । णिच्चत्ताए गहणं धुवावग्गहो, तधिवरीयगहणमद्धवावग्गहो । एवमीहादीणं पि बारस भेदा परूवेदव्या । चक्खिदियणोइंदियाणं अद्वेतालीस आभिणिबोधियणाणवियप्पा होंति, एदेसि वंजणावग्गहाभावा । सेसिंदियाण सट्ठी मदिणाणवियप्पा, तत्थ अत्थ-बंजणोग्गहाणं दोण्हं पि संभवादो । एवंविधस्स णाणस्स जमावरणं तमाभिणियोहियणाणावरणीयं । सुदणाणस्स आवरणीयं सुदणाणावरणीयं । तत्थ सुदणाणं णाम इंदिएहि गहिदत्थादो तदो पुधभूदत्थग्गहणं, जहा सद्दादो घडादीणमुवलंभो, धूमादो अग्गिस्सुवलंभो वा । तं च सुदणाणं वीसदिविधं । तं जधा -- पज्जाओ पज्जायसमासो अक्खरं अक्खरसमासो पदं पदसमासो संघाओ संघायसमासो पडिवत्ती पडिवत्तिसमासो अणियोगो अणियोगसमासो पाहुडपाहुडो पाहुडपाहुइसमासो पाहुडो पाहुडसमासो वत्थू वत्थुसमासो पुवं पुवसमासो चेदि । खरणाभावा अक्खरं केवलणाणं । तस्स अणंतिममाना गया है। नित्यतासे अर्थात् निरन्तर रूपसे ग्रहण करना ध्रुव-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अधुव-अवग्रह है। ___ इस प्रकार ईहा आदि शेष तीन ज्ञानोंके भी बारह बारह भेद निरूपण करना चाहिये । चक्षुरिन्द्रिय और नो-इन्द्रिय अर्थात् मनके अड़तालीस आभिनियोधिक ज्ञानसम्बन्धी विकल्प होते हैं, क्योंकि, चक्षु और मन, इन दोनोंके व्यंजनावग्रहका अभाव है । शेष चारों इन्द्रियोंके साठ मतिज्ञान-सम्बन्धी भेद होते हैं, क्योंकि, उनमें अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह, इन दोनोंका भी होना संभव है। इस प्रकारके ज्ञानका जो आवरण करता है उसे आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। श्रुतज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मको श्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं। उनमें इन्द्रियोंसे ग्रहण किये गये पदार्थसे उससे पृथग्भूत पदार्थका ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। जैसे-शब्दसे घट आदि पदार्थोका जानना, अथवा धूमसे अग्निका ग्रहण करना । वह श्रुतक्षान बीस प्रकारका है। जैसे-पर्याय, पर्याय-समास, अक्षर, अक्षर-समास, पद, पद-समास, संघात, संघात-समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्ति-समास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृत-समास, प्राभृत, प्राभृत-समास, वस्तु, वस्तु-समास, पूर्व और पूर्व-समास । क्षरण अर्थात् विनाशके अभाव होनेसे केवलज्ञान अक्षर कहलाता है। उसका १ अत्थादो अत्यंतरमुवलंभ तं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहियपुव्वं णियमेणिह सद्द पमुहं ।। गो.जी.३१४. २ पज्जायक्खरपदसंघादं पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थु पुव्वं च ॥ तेसिं च समासेहि य वीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेता हवंति चि ॥ गो. जी. ३१६-३१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy