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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-१, १४. भागो पज्जाओ णाम मदिणाणं । तं च केवलणाणं व णिरावरणमक्खरं च । एदम्हादो सुहुमणिगोदलद्धिअक्खरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्चदि, कज्जे कारणोवयारादो । तदो अणंतभागब्भहियं सुदणाणं पज्जयसमासो उच्चइ । अणंतभागवड्डी असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी संखेज्जगुणवड्डी असंखेज्जगुणवड्डी अणंतगुणवड्डि त्ति एसा एक्का छवड्डी। एरिसाओ असंखेज्जलोगमेत्तीओ छबड्डीओ गंतूण पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमो वियप्पो होदि । तमणतेहि रूवेहि गुणिदे अक्खरं णाम सुदणाणं होदि । कधमेदस्स अक्खरववएसो ? ण, दब्बसुदपडिबद्धेयक्खरुप्पण्णस्स उवयारेण अक्खरववएसादो । एदस्सुवरि अक्खरवड्डी चेव होदि, अवराओ वड्डीओ णत्थि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। केई पुण आइरिया अक्खरसुदणाणं पि छबिहाए वड्डीए वड्ढदि ति भणंति, णेदं घडदे, सयल-सुदणाणस्स संखेज्जदिभागादो अक्खरणाणादो
अनन्तवां भाग पर्याय नामका मतिज्ञान है । वह पर्याय नामका मतिज्ञान केवलज्ञानके समान निरावरण और अविनाशी है । इस सूक्ष्म-निगोद-लब्धि-अक्षरसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह भी कार्यमें कारणके उपचारसे पर्याय कहलाता है । . इस पर्याय श्रुतज्ञानसे जो अनन्तवें भागसे अधिक श्रुतज्ञान होता है वह पर्याय-समास कहलाता है। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, इन छहों वृद्धियोंके समुदायात्मक यह एक षड्वृद्धि होती है। इस प्रकारकी असंख्यात लोकप्रमाण षड्वृद्धियां ऊपर जाकर पर्याय-समासनामक श्रुतज्ञानका अन्तिम विकल्प होता है। उस अन्तिम विकल्पको अनन्त रूपोंसे गुणित करने पर अक्षर-नामक श्रुतज्ञान होता है ।
शंका-उक्त प्रकारके इस श्रुतज्ञानकी 'अक्षर' ऐसी संक्षा कैसे हुई ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यश्रुत-प्रतिबद्ध एक अक्षरकी उत्पत्तिकी उपचारसे 'अक्षर' ऐसी संज्ञा है।
इस अक्षर-श्रुतज्ञानके ऊपर एक एक अक्षरकी ही वृद्धि होती है, अन्य वृद्धियां नहीं होती हैं, इस प्रकार आचार्य-परम्परागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही आचार्य
सा कहते है कि अक्षर-श्रुतशान भी छह प्रकारकी वृद्धिसे बढ़ता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, समस्त श्रुतज्ञानके संख्यातवें भागरूप अक्षर-ज्ञानसे
१ सुहमणिगोदअपज्जत्यस्स जादस्स पढमसमयम्हि । हवदि हु सव्वजणं णिच्चुग्घार्ड णिरावरणं ॥३१॥ xxx फासिंदियमादिपुव्वं सुदणाणं लद्धिअक्खरयं ॥ ३२१॥ गो. जी.
२ अवरुवरिम्मि अणंतमसंखं संखं च मागवड्डीए । संखमसंखमणंतं गुणवड्डी होति हु कमेण ॥ ३२२ ॥ एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा । ते पज्जायसमासा अक्खरगं उवरि वोच्छामि ॥ ३३१ ॥ चरिमुव्वं. केगवहिदअत्थक्खरगुणिदचरिममुव्वंक। अत्थक्खरं तु णाणं होदि ति जिणेहिं णिद्दिट्ठ॥ ३३२॥ गो. जी.
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