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१, ९–१, १२. ] चूलियाए पगडिसमुत्तिणे णाम- गोदंतरायं
दोम्मदे ? देहट्ठिदिअण्णहाणुववत्तदो ।
णामं ॥ १० ॥
नाना मिनोति निर्वर्त्तयतीति नाम' ।) जे पोग्गला सरीर-संठाण-संघडण वण्णगंधादिकज्जकारया जीवणिविट्ठा ते णामसण्णिदा होंति त्ति उत्तं होदि । तस्स णामकम्मस्स अत्थितं कुदोवगम्मदे ? सरीर-संठाण-वण्णादिकज्जभेदष्णहाणुववत्तदो ।
गोदं ॥ ११ ॥
गमयत्युच्च-नीच कुलमिति गोत्रम् | उच्च णीचकुलेसु उप्पादओ पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तादिपच्चएहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे | अंतरायं चेदि ॥ १२ ॥
अन्तरमेति गच्छति द्वयोः इत्यन्तरायः । दाण-लाह-भोगोव भोगादिसु विग्घ
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समाधान - देहकी स्थिति अन्यथा हो नहीं सकती है, इस अन्यथानुपपत्तिसे आयुकर्मका अस्तित्व जाना जाता है । नाम कर्म है ॥ १० ॥
जो नाना प्रकारकी रचना निर्वृत्त करता है, वह नामकर्म है | शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गंध आदि कार्योंके करनेवाले जो पुद्गल जीवमें निविष्ट हैं, वे 'नाम' इस संज्ञावाले होते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है ।
शंका - उस नामकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ?
समाधान - शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्योंके भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं, इस अन्यथानुपपत्तिसे नामकर्मका अस्तित्व जाना जाता है ।
गोत्र कर्म है ॥ ११ ॥
जो उच्च और नीच कुलको ले जाता है वह गोत्रकर्म है । मिथ्यात्व आदि बंधकारणोंके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त, एवं उच्च और नीच कुलोंमें उत्पन्न कराने वाला पुद्गल-स्कन्ध ' गोत्र ' इस नामसे कहा जाता है ।
अन्तराय कर्म है ॥ १२ ॥
जो दो पदार्थोंके अन्तर अर्थात् मध्यमें आता है, वह अन्तराय कर्म है । दान, लाभ, भोग और उपभोग आदिकों में विघ्न करनेमें समर्थ तथा स्व-कारणोंके द्वारा जीवके
१ नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम । स. सि. ८, ४; त. रा. वा. ८, ४. गदि आदिजीवभेदं देहादी पोग्गलाणभेदं च । गादयंतरपरिणमणं करेदि णामं अणेयविहं ॥ गो . क. १२.
२ उच्चैश्व गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम् । स. सि. ८, ४; त. रा. वा. ८, ४. संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥ गो . क. १३.
३ दातृदेयादीनामन्तरं मध्यमेतीत्यन्तरायः । स. सि. ८, ४.५ त. रा. वा. ८, ४.
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