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१२ छक्खंडागमे जविट्ठाणं
[१, ९-१, ९. कम्मत्तं पसज्जदे ? ण, मिच्छत्तादिपच्चएहि जीवे संबद्धाणं जाइ-जरा-मरणादिकज्जकरणे समत्थाणं पोग्गलाणं कम्मत्तब्भुवगमादो । उत्तं च
जीवपरिणामहेदू कम्मत्तं पोग्गला परिणमंति । ण य णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि ॥ ३ ॥ जारिसओ परिणामो तारिसओ चेव कम्मबंधो वि ।
वत्थूसु विसम-समसण्णिदेसु अझप्पजोएण ॥ ४ ॥ मिच्छत्तादिपच्चएहि कोह-माण-माया-लोहादिकज्जकारित्तेण परिणदा पोग्गला जीवेण सह संबद्धा मोहणीयसण्णिदा होंति त्ति जं उत्तं होदि ।
आउअं॥९॥
एति भवधारणं प्रति इत्यायुः। जे पोग्गला मिच्छत्तादिकारणेहि णिरयादिभवधारणसत्तिपरिणदा जीवणिविट्ठा ते आउअसण्णिदा होति । तस्स आउअस्स अत्थित्तं
शंका- यदि ऐसा है तो सभी पुद्गलोंके कर्मपना प्रसक्त होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व आदि बन्ध-कारणोंके द्वारा जीवमें सम्बन्धको प्राप्त, तथा जन्म, जरा और मरण आदि कार्योंके करने में समर्थ पुद्गलोंके कर्मपना माना गया है । कहा भी है
जीवके रागादि परिणामोंके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं। किन्तु शान-परिणत जीव कर्मको नहीं प्राप्त होता है ॥ ३॥
विषम और सम संज्ञावाली अर्थात् अनिष्ट और इष्ट वस्तुओंमें आत्मसम्बन्धी योगके द्वारा जिस प्रकारका परिणाम होता है, उस प्रकारका ही कर्म-वन्ध भी होता है ॥४॥
मिथ्यात्व आदि बंध-कारणोंके द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कार्य करनेकी शक्तिसे परिणत हुए पुद्गल जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त होकर ' मोहनीय ' संज्ञावाले हो जाते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है।
आयु कम है ॥९॥
जो भव-धारणके प्रति जाता है, वह आयुकर्म है । जो पुदल मिथ्यात्व आदि बंध-कारणोंके द्वारा नरक आदि भव-धारण करने की शक्तिसे परिणत होकर जीवमें निविष्ट होते हैं, वे 'आयु' इस संज्ञावाले होते हैं।
शंका-उस आयुकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ?
१ प्रतिषु '-संचएहि ' इति पाठः।।
२ एत्यनेन नारकादिभवमित्यायुः। स. सि. ८, ४.; त. रा. वा. ८, ४. कम्मकयमोहबड़ियसंसारम्हि य अणादिजुत्तम्हि । जीवस्स अवठ्ठाणं करेदि आऊ हलि वणरं ॥ गो. क. १२.
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