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________________ १४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-१, १३. करणक्खमो पोग्गलक्खंधो सकारणेहि जीवसमवेदो अंतरायमिदि भण्णदे । एत्तियाओ चेव मूलपयडीओ होति त्ति जाणावणमिदि सद्दो पउत्तो । एत्थ उववुजंतओ सिलोगो ( हेतावेवम्प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । _प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ॥ ५॥ तदो अद्वेव मूलपयडीओ । तं कुदो णव्वदे ? अट्ठ-कम्मजणिदकज्जेहिंतो पुधभूदकज्जस्स अणुवलंभादो। एदाहि अहि पयडीहि अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेणुप्पण्णाहि एगेगजीवपदेसम्मि संबद्धवाणंतपरमाणूहि अणादिसरूपेण संबद्धो अमुत्तो वि मुत्तत्तमुवगओ आइद्धकुलालचक्कं व सत्तसु संसारेसु जीवो संसरदि त्ति घेत्तव्यं । मेहाविजीवाणुग्गहढें संगहणयमवलंबिय पयडिसमुक्कित्तणं काऊण संपहि मंदबुद्धिजणाणुग्गह{ ववहारणयपज्जयपरिणदो आइरिओ उपरिमसुत्तं भणदि णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ ॥ १३ ॥ साथ सम्बन्धको प्राप्त पुद्गल स्कन्ध 'अन्तराय' इस नामसे कहा जाता है । मूलप्रकृतियां इतनी अर्थात् आठ ही होती हैं, इस बातके ज्ञान करानेके लिए सूत्र में ' इति' यह शब्द प्रयुक्त किया गया है । इस विषयमें यह उपयुक्त श्लोक है हेतु, एवं, प्रकार-आदि, व्यवच्छेद, विपर्यय, प्रादुर्भाव और समाप्तिके अर्थमें 'इति' शब्दको विद्वानोंने कहा है ॥५॥ इसलिए मूलप्रकृतियां आठ ही हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि मूलप्रकृतियां आठ ही हैं ? समाधान-आठ कर्मोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्योंसे पृथग्भूत कार्य पाया नहीं जाता, इससे जाना जाता है कि मूलप्रकृतियां आठ ही हैं। अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायके समागमसे उत्पन्न हुई इन आठ प्रकृतियोंके द्वारा एक एक जीव-प्रदेशपर सम्बद्ध अनन्त परमाणुओके द्वारा अना। सम्बन्धको प्राप्त अमूर्त भी यह जीव मूर्तत्त्वको प्राप्त होता हुआ आविद्ध-कुलाल-चक्रके समान, अर्थात् प्रयोग-प्रेरित कुम्भकारके चक्रके तुल्य, द्रव्यपरिवर्तनादि सात प्रकारके संसारोंमें संसरण या भ्रमण करता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मेधावी जीवोंके अनुग्रहार्थ संग्रहनयका अवलंबन ले प्रकृतिसमुत्कीर्तन करके अब मन्द-बुद्धि जनोंका अनुग्रह करनेके लिए व्यवहारनयरूप पर्यायसे परिणत आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं ज्ञानावरणीय कर्मकी पांच उत्तर प्रकृतियां हैं ॥ १३ ॥ १धनं. अनेकार्थनाममाला ३९. २ प्रतिषु — मंदबुद्धिओणाणुग्गहढे ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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