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१०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-१, ७. ( असरीरा जीवघणा उवजुत्ता दंसणे य णाणे य ।
सायारमणायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ २ ॥ एदं दंसणमावारेदि त्ति दसणावरणीयं । जो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तासंजमकसाय-जोगेहि कम्मसरूवेण परिणदो जीवसमवेदो दंसणगुणपडिबंधओ सो दंसणावरणीयमिदि घेत्तव्यो।
वेदणीयं ॥ ७॥
वेद्यत इति वेदनीयम् । एदीए उष्पत्तीए सव्वकम्माणं वेदणीयत्तं पसज्जदे ? ण एस दोसो, रूढिवसेण कुसलसद्दो व्व अप्पिदपोग्गलपुंजे चेव वेदणीयसद्दप्पउत्तीदो । अथवा वेदयतीति वेदनीयम् । जीवस्स सुह-दुक्खाणुहवणणिबंधणो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तादिपञ्चयवसेण कम्मपज्जयपरिणदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि भण्णदे ।
जो अशरीर हैं, जीवधनात्मक हैं अर्थात् शुद्ध जीवप्रदेशात्मक है, ज्ञान और दर्शनमें उपयुक्त हैं, वे सिद्ध हैं । इस प्रकार साकार और अनाकार, यह सिद्धोका लक्षण है ॥२॥
इस प्रकारके दर्शनगुणको जो आवरण करता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। अर्थात् जो पुद्गल-स्कन्ध मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगोंके द्वारा कर्मस्वरूपसे परिणत होकर जीवके साथ समवायसम्बन्धको प्राप्त है और दर्शनगुणका प्रतिबन्ध करनेवाला है, वह दर्शनावरणीय कर्म है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
वेदनीय कर्म है ॥ ७॥ जो वेदन अर्थात् अनुभवन किया जाय, वह वेदनीय कर्म है ।
शंका-इस प्रकारकी व्युत्पत्तिके द्वारा तो सभी कर्मोंके वेदनीयपनेका प्रसंग प्राप्त होता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, रूढिके वशसे कुशलशब्दके समान विवक्षित पुगल-पुंजमें ही 'वेदनीय' इस शब्दकी प्रवृत्ति पाई जाती है। अर्थात् जिस प्रकार कुशलशब्दका व्युत्पत्त्यर्थ कुशको लानेवाला होने पर भी उसका रूढार्थ 'चतुर' लिया जाता है, उसी प्रकार सभी कर्मोंमें वेदनीयता होनेपर भी वेदनीयसंज्ञा एक कर्मविशेषके लिए रूढ है।
अथवा, जो वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है। जीवके सुख और दुःखके अनुभवनका कारण, मिथ्यात्व आदि प्रत्ययोंके वशसे कर्मरूप पर्यायसे परिणत और जीवके साथ समवायसम्बन्धको प्राप्त पुद्गल-स्कन्ध वेदनीय' इस नामसे कहा जाता है।
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१ स. सि. ८, ४.; त. रा. वा. ८, ४.
२ प्रतिषु 'वेदणीयं इति पाठः। वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम् । स. सि. ८,४.; त. रा. वा.८,४. भक्खाणं अशुभवणं वेयणियं सुहसरूवयं सादं। दुक्खसरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ॥ गो. क. १४.
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