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________________ ........................ १, ९-१, ६.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे दंसणावरणीयं सरूवेण अणाइबंधणबद्धो णाणावरणीयमिदि भण्णदे। दंसणावरणीयं ॥ ६॥ अप्पविसओ उवजोगो दंसणं । ण णाणमेदं, तस्स बज्झट्ठविसयत्तादो। ण च बझंतरंगविसयाणमेयत्तं, विरोहा । ण च णाणमेव दुसत्तिसहियं, पज्जयस्स पज्जयाभावा । णाण-दंसणलक्षणो जीवो त्ति तदो इच्छिदव्यो । एदं च दंसणमावरिज', विरोहिदव्वसण्णिहाणे संते वि एदस्स णिम्मूलदो विणासाभावा । भावे वा जीवस्स वि विणासो पसज्जदे, लक्खणविणासे लक्खस्सावट्ठाणविरोहा । ण च णाण-दसणाणं जीवलक्षणत्तमसिद्धं, दोण्हमभावे जीवदव्यस्सेव अभावप्पसंगो। होदु चे ण, पमाणाभावे पमेयाणं सेसदव्वाणं पि अभावावत्तीदो । उत्तं च (एक्को मे सस्सदो अप्पा णाण-दंसणलक्खणो । सेसा दु बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १॥) अनादि बंधन-बद्ध पुद्गल स्कन्ध 'ज्ञानावरणीय कर्म' कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म है ॥ ६॥ आत्म-विषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं । यह दर्शन, ज्ञानरूप नहीं है, क्योंकि, ज्ञान बाह्य अर्थोको विषय करता है । तथा बाह्य और अन्तरंग विषयवाले ज्ञान और दर्शनके एकता नहीं है, क्योंकि, वैसा माननमें विरोध आता है । और न ज्ञानको ही दो शक्तियोंसे युक्त माना जा सकता है, क्योंकि, पर्यायके अन्य पर्यायका अभाव माना गया है। इसलिए ज्ञान-दर्शनलक्षणात्मक जीव मानना चाहिए। यह दर्शन आवरण करनेके योग्य है, क्योंकि, विरोधी द्रव्यके सन्निधान होने पर भी इसका निर्मूलसे विनाश नहीं होता है । यदि दर्शनगुणका निर्मूल विनाश होने लगे, तो जीवके भी विनाशकाप्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि, लक्षणके विनाश होने पर लक्ष्यके अवस्थानका विरोध है। दूसरी बात यह है कि ज्ञान और दर्शनके जीवका लक्षणत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, दोनोंके अर्थात् ज्ञान और दर्शनके अभाव माननेपर जीवद्रव्यका ही अभाव प्राप्त होता है। शंका-यदि ज्ञान और दर्शनके अभाव होनेपर जीवद्रव्यका ही अभाव प्राप्त होता है, तो होने दो? समाधान--नहीं, क्योंकि, (स्व-परव्यवसायात्मक) प्रमाणके अभावमें प्रमेयस्वरूप शेष द्रव्योंके भी अभावकी आपत्ति आती है । कहा भी है ज्ञान-दर्शनलक्षणात्मक मेरा आत्मा एक शाश्वत (नित्य) है। शेष सर्व संयोगलक्षणात्मक भाव बाहरी है ॥१॥ १ प्रतिषु · दंसणमुवरिज्जं ' इति पाठः। २ भावपा. गा. ५९. मूलाचा. २, ४८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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