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________________ १, ९-१, ३.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणं होदि त्ति णव्वदे । तदो णाढवेदव्यमिदं सुत्तमिदि ? ण एस दोसो, एदम्हि पदे इमाओ चूलियाओ अवहिदाओ, इमाओ वि ण द्विदाओ त्ति जाणावणटुं, 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' त्ति णायस्स अत्थित्तपरूवणटुं च तदारंभादो । विविहा भासा विहासा, परूवणा णिरूवणा वक्खाणमिदि एय8ो । इदाणिं पगडिसमुकित्तणं कस्सामा ॥ ३ ॥ पगडीणं समुकित्तणं पगडिसमुक्कित्तणं, पयडिसरूवणिरूवणमिदि जं उत्तं होदि । इदाणिं संपहि, कस्सामो भण्णिस्सामा ति एयट्ठो। पढमं पयडिसमुकित्तणं चेव किमट्ट उच्चदे ? ण, पयडीए अणवगदाए ठाणसमुकित्तणादीणमवगमोवायाभावा । ण च अवयविणि अणवगदे अवयवा अवगंतुं सकिज्जते, अण्णत्थ तहाणुवलंभा । तम्हा पयडिसमुक्कित्तणमेव पुव्वं परूविज्जदे । तं पि पयडिसमुक्कित्तणं मूलुत्तरपयडिसमुक्कित्तणभेएण दुविहं होइ । संगहियासेसवियप्पा दवट्ठियणयणिबंधणा मूलपयडी णाम । पुध पुधाबात जानी जाती है । अतएव यह सूत्र आरम्भ नहीं करना चाहिए ? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इस पदमें ये चूलिकाएं अवस्थित हैं, और ये चूलिकाएं अवस्थित नहीं हैं, इस वातके ज्ञान करानेके लिए, तथा 'जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश होता है। इस न्यायके अस्तित्व-प्ररूपणके लिए इस सूत्रका आरम्भ किया गया है। विविध प्रकारके भाषण अर्थात् कथन करनेको विभाषा कहते हैं। विभ.पा, प्ररूपणा, निरूपणा और व्याख्यान, ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं। अब प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण करेंगे ॥ ३ ॥ __ प्रकृतियोंके समुत्कीर्तनको प्रकृतिसमुत्कीर्तन कहते हैं, जिसका कि अर्थ प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण करना होता है । इस समय अर्थात् आठों प्ररूपणाओंके पश्चात् अब, करेंगे अर्थात् प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी चूलिकाको कहेंगे, ये शब्द एकार्थक हैं। शंका-पहले प्रकृतिसमुत्कीर्तनको ही किसलिए कहते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकृतियोंके अशात होने पर स्थानसमुत्कीर्तन आदिके ज्ञानका कोई उपाय नहीं है। दूसरी बात यह है कि अवयवीके अज्ञात रहनेपर अवयव नहीं जाने जा सकते हैं, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। इसलिए प्रकृतिसमुत्कीर्तनको ही पहले कहते हैं। वह प्रकृतिसमुत्कीर्तन भी मूलप्रकृतिसमुत्कीर्तन और उत्तरप्रकृतिसमुत्कीतनके भेदसे दो प्रकारका होता है । अपने अन्तर्गत समस्त भेदोंका संग्रह करनेवाली और द्रव्यार्थिकनय-निबन्धनक प्रकृतिका नाम मूलप्रकृति है । पृथक् पृथक् अवयववाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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