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________________ .......... छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-१, २. सा वि चूलिया एयविहा होदि सामण्णविवक्खाए, पज्जवट्ठियणयादो णवविहा । तं जहा- 'कदि पगडीओ बंधदि ' ति पदे पगडि-ट्ठाणसमुक्कित्तणसण्णिदाओ' दोण्णि जूलियाओ होति । 'काओ पयडीओ बंधदि' त्ति पदम्हि पढम-विदिय-तदियदंडयसण्णिदाओ तिण्णि चूलियाओ द्विदाओ। 'केवडिकालट्ठिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं लब्भदि वा ण लब्भदि वा' त्ति पदम्हि जहण्णुक्कस्सद्विदिसण्णिदाओ दोण्णि चूलियाओ अवहिदाओ। 'केवचिरेण कालेण कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं, उवसामणा वा खवणा वा केसु व खेत्तेसु कस्स व मूले, केवडियं वा दंसणमोहणीयं कम्म खवेंतस्स चारित्तं वा संपुण्णं पडिवज्जंतस्स' एदेसु पदेसु अट्ठमी चूलिया। 'वा संपुण्णं' त्ति 'वा' सदम्हि गदिरागदी णाम णवमी चूलिया। एवं णव चूलिया होंति । अवांतरभेएण अणेयविहाओ वा । एदासिं णवण्हं चूलियाण मट्टपरूवणमुवरिमसुत्तं भणदि कदि काओ पगडीओ बंधदि त्ति जं पदं तस्स विहासा ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो ' त्ति णायादो पढममुद्दिदुस्स पढमं चेव णिद्देसो वह चूलिका भी सामान्य विवक्षासे एक प्रकारकी है, और पर्यायार्थिक नयसे नौ प्रकारकी है । वह इस प्रकार है-'कितनी प्रकृतियां बांधता है' इस पदमें प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन नामक दो चूलिकाएं समन्वित हैं । 'किन प्रकृतियोको बांधता है' इस पदमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय दंडक नामवाली तीन चूलिकाएं अवस्थित हैं'। 'कितने काल-स्थितिवाले कर्मों के द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है', इस पदमें जघन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति नामकी दो चूलिकाएं अवस्थित हैं । 'कितने कालके द्वारा मिथ्यात्वकर्मको कितने भागरूप करता है, और किन क्षेत्रों में तथा किसके पासमें कितने दर्शनमोहनीयकर्मको क्षपण करनेवाले और सम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त होनेवाले जीवके मोहनीयकर्मकी उपशमना तथा क्षपणा होती है ' इन पदोंमें आठवीं चूलिका अन्तर्निहित है । ' वा संपुण्णं' इस वाक्यमें आये हुए 'वा' शब्दमें गति-आगति नामकी नवमीं चूलिका अन्तर्भूत है। इस प्रकार उपर्युक्त सर्व चूलिकाएं नौ होती हैं । अथवा, अवान्तर भेदकी अपेक्षा चूलिकाएं अनेक प्रकारकी हैं। अब इन नवों चूलिकाओंके अर्थप्ररूपणके लिए आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं 'कितनी और किन प्रकृतियोंको बांधता है' यह जो पूर्वसूत्र-पठित पद है, उसका व्याख्यान किया जाता है ॥ २ ॥ शंका-'जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश किया जाता है' इस न्यायके अनुसार पहले उद्देश किये गये पदार्थका पहले ही निर्देश होता है, यह १ प्रतिषु — समण्णिदाओ' इति पाठः। २ प्रतिषु । केवलि-' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' संपुण्णं वा ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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