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१, ९-१, १.]
चूलियाए अवयारपरूवणं कधमंतब्भावो ? अट्ठाणिओगद्दारसइदट्ठपरूवणादो । तं जहा- खेत्त-कालंतरअणिओगद्दारेहि गदिरागदी सूचिदा । सा वि गदिरागदी पयडिसमुक्त्तिणं ठाणसमुकित्तणं च सूचेदि, बंधेण विणा सत्तविहपरियट्टेसु परियट्टणाणुववत्तीदो । पयडि-ट्ठाणसमुक्कित्तणेहि जहण्णुकस्सद्विदीओ सूचिदाओ, सकसायजीवस्स हिदिबंधेण विणा पयडिबंधाणुववत्तीदो । अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणमिदि वयणेण पढमसम्मत्तग्गहणं सूचिदं, अण्णहा देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तमिच्छत्तट्ठिदीए संभवाभावा । तेण वि पढमसम्मत्तग्गहणेण तिण्णि महादंडया पढमसम्मत्तग्गहणजोग्गखेतिंदिय-तिविहकरण-पजत्त-द्विदि-अणुभागखंडयादओ सूचिदा होति । एदेणेव मोक्खो वि सूचिदो। कुदो ? अद्धपोग्गलपरियट्टादो उवरि आलद्धसम्मत्ताणं संसाराभावा । तेण वि मोक्खेण दंसण-चारित्तमोहणीयखवणविहाणं तज्जोग्गखेत्त-गइ करण-द्विदीओ च सूचिदा भवंति । ण च तेसिं तत्थ णिण्णओ कदो, तत्थ णिण्णये कीरमाणे सिस्साणं मइबाउलत्तप्पसंगा। ण विदियवियप्पो, अणब्भुवगमादो।
शंका-चूलिकाका आठों अनुयोगद्वारों में अन्तर्भाव कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, जूलिकानामक अधिकार आठों अनुयोगद्वारोंसे सूचित अर्थका प्ररूपण करता है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-क्षेत्रप्ररूपणा, कालप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणा, इन तीन अनुयोगद्वारोंसे गति-आगति नामकी चूलिका सूचित की गई है। वह गति-आगति चूलिका भी प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन, इन दो अधिकारोंको सूचित करती है, क्योंकि, कर्म-बंधके बिना सात प्रकारके परिवर्तनों में परिवर्तन अन्यथा हो नहीं सकता है। प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तनके द्वारा (कर्मीकी) जघन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति नामकी दो चूलिकाएं सूचित की गई हैं, क्योंकि, सकषाय जीवके स्थितिबंधके विना प्रकृतिबंध नहीं हो सकता है। कालप्ररूपणामें कहे गये 'देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन' इस वचनसे प्रथमसम्यक्त्वका ग्रहण सूचित किया गया है। यदि ऐसा न माना जाय, तो देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र मिथ्यात्वकी स्थितिका होना संभव नहीं है। उस प्रथमसम्यक्त्व-ग्रहणके द्वारा भी तीन महादंडक, प्रथमसम्यक्त्व ग्रहण करनेके योग्य क्षेत्र, इंद्रिय, विविधकरणकी प्राप्ति, पर्याप्तकपना, स्थितिखंड और अनुभागखंड आदिक सूचित किये गये हैं। इस ही अधिकारके द्वारा मोक्ष भी सूचित किया गया है, क्योंकि, अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालसे ऊपर आलब्धसम्यक्त्व अर्थात् प्राप्त किया है सम्यक्त्वको जिन्होंने, ऐसे जीवोंके संसार का अभाव होता है । उस मोक्षके द्वारा भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मके क्षपणका विधान, उसके योग्य क्षेत्र, गति, करण और स्थितियां सूचित की गई हैं। इन सब बातोंका उन आठ अनुयोगद्वारोंमें निर्णय नहीं किया गया है, क्योंकि, वहां उन सबका निर्णय करने पर शिष्योंके वुद्धि-व्याकुलताका प्रसंग प्राप्त होता । द्वितीय विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि, चूलिकाको जीवस्थानसे पृथग्भूत नहीं माना गया है।
१ कालप्र. सू. ४. २ अ-आ-क प्रतिषु · अलद्ध-' इति पाठः । म प्रती आलीढ-' इत्यपि पाठः ।
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