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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९–१, १. सम्म अट्ट अणियोगद्दारेसु चूलिया किमट्टमागदा ? पुव्युत्ताणमदृष्णमणिओगद्दाराणं विसमपएस विवरणमागदा । एत्थ चोदओ भणदि - अहि अणिओगद्दारे हि परूविदमेव अहं किं चूलिया परूवेदि, अण्णं वा ? जदि तं चैव परुवेदि, तो पुणरुत्तदोसो । विदीए चोहसजीव समासपडिबद्धं वा परुवेदि, अप्पडिबद्धं वा ? पढमवियप्पे ' चोदसण्हं जीवसमासाणं परूवणट्टदाए तत्थ इमाणि अड्ड चैव अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ' सि एदस्स सुत्तस्स अवहारणपदस्स विहलत्तं प्रसज्जदे । कुदो ? चूलियासणिदस्स चोदसजीवसमास पडिबद्ध परूवयस्स णवमस्स अणिओगद्दारस्सुबलभा । विदीए चूलिया जीवट्ठाणादो पुधभूदा होज, चोइसजीवसमास पडिबद्धअट्ठे अभणतरस जीवडाणवव एसविरोहा ? २ ] एत्थ परिहारो उच्चदे - ण ताव पुणरुत्तदोसो, अट्टाणिओगद्दारेहि अपरूविदस्स तत्थ उत्तत्थणिच्छयजणणस्स अट्ठस्स तदो कथंचि पुधभूदस्स तेहि चेव सूचिदस्स परूचणादो | ण च एवकारपदस्स विहलत्तं, चूलियाए अट्टाणिओगद्दारेसु अंतभावादो शंका - जीवस्थाननामक प्रथम खंडसम्बन्धी आठों अनुयोगद्वारोंके समाप्त हो जाने पर यह चूलिका नामक अधिकार किसलिए आया है ? समाधान - पूर्वोक्त आठों अनुयोगद्वारोंके विषम-स्थलोंके विवरण के लिये यह चूलिका नामक अधिकार आया है । शंका- यहां पर शंकाकार कहता है कि- चूलिकानामक अधिकार आठों अनुयोगद्वारोंसे प्ररूपित ही अर्थको प्ररूपण करता है, अथवा अन्य अर्थको ? यदि उसी ही अर्थको प्ररूपित करता है तो पुनरुक्तदोष आता है । द्वितीय पक्ष में वह चतुर्दश- जीवसमास- प्रतिबद्ध अर्थका प्ररूपण करता है, अथवा चतुर्दश-जीवसमास-अप्रतिबद्ध अर्थका ? प्रथम विकल्पके मानने पर - ' चौदह जीवसमासों के प्ररूपण करनेके लिये उस विषय में ये आठ ही अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं' इस प्रकार के इस सूत्र के अवधारणरूप एवकारपदके विफलता प्राप्त होती है, क्योंकि चतुर्दश- जीवसमासमे प्रतिवद्ध अर्थका प्ररूपण करनेवाला चूलिकासंज्ञित नवमां अनुयोगद्वार पाया जाता है । द्वितीय पक्षके मानने पर धूलिकानामक अधिकार जीवस्थान से पृथग्भूत हो जायगा, क्योंकि, चतुर्दश जीवसमासप्रतिबद्ध अर्थोंको नहीं कहनेवाले अधिकारके ' जीवस्थान ' इस संज्ञाका विरोध है ? समाधान -- यहां पर उक्त शंकाका परिहार किया जाता है-न तो प्रथम पक्षमें दिया गया पुनरुक्त दोष आता है, क्योंकि, आठों ही अनुयोगद्वारोंसे नहीं प्ररूपण किये गये, तथा वहां पर कहे गये अर्थ के निश्चय उत्पन्न करनेवाले और जीवस्थानसे कथंचित् पृथग्भूत तथा उन आठों अनुयोगद्वारोंसे ही सूचित अर्थका इस धूलिकानामक अधिकार में प्ररूपण किया गया है । द्वितीय पक्षके अन्तर्गत प्रथम पक्ष में बतलाई गई एवकार पदकी विफलता भी नहीं आती है, क्योंकि चूलिकाका आठों अनुयोगद्वारोंमें अन्तर्भाव हो जाता है । १ सत्प्ररू. सु. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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