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तस्स
(सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो
छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
पढमखंडे जीवट्ठाणे
चूलिया । तिहुवणसिरसेहरए भवभयगम्भादु णिग्गदे पणउं ।
सिद्धे जीवट्ठाणस्समलिणगुणचूलियं वोच्छं ।) कदि काओ पयडीओ बंधदि, केवडि कालढिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं लम्भदि वा ण लब्भदि वा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं, उवसामणा वा खवणा वा केसु व खेत्तेसु कस्स व मूले केवडियं वा दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंतस्स चारित्तं वा संपुण्णं पडिवज्जंतस्स ॥ १॥
त्रिभुवनरूप लोकके शिर पर स्थित शेखरस्वरूप और भव-भयके गर्भसे विनिर्गत ऐसे सिद्धोंको प्रणाम करके जीवस्थान नामक प्रथम खंडकी निर्मल गुणवाली चूलिकाको कहता हूं॥
सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव कितनी और किन प्रकृतियोंको बांधता है, कितने काल-स्थितिवाले कौके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है, कितने कालके द्वारा मिथ्यात्व कर्मको कितने भागरूप करता है, और किन किन क्षेत्रों में तथा किसके पासमें कितने दर्शनमोहनीय कर्मको क्षपण करनेवाले जीवके और सम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त होनेवाले जीवके मोहनीय कर्मकी उपशामना तथा क्षपणा होती है ॥१॥
१ कप्रतौ — कदि काओ सयचाओ बंधदि चारित्तपुण्णपडिवज्ज' इति पाठः।
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