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१, ९-९, २४३. ] चूलियाए गदियागदियाए देवाणं गदीओ गुणुप्पादणं च [५०१ . किमढे ण तेसिं वासुदेवत्तं ? ण, तस्स मिच्छत्ताविणाभाविणिदाणपुरंगमत्तादो । ओहिणाणं णियमा अस्थि त्ति कधं ? ण, तेसिं अणणुगामि-हायमाण-पंडिवादिओहिणाणाणमभावादो । सम्मत्तसयलकज्जादो पत्तप्पसरूवा सिझंति । अणवगयत्थाभावादो अण्णाणकणस्स वि अभावादो वा, सिद्धाणं बुद्धिअभावपदुप्पायअदुण्णयणिवारणटुं वा, अप्पाणं चेव जाणइ सिद्धो ण बज्झट्ठमिदि दुण्णयणिवारणटुं वा बुझंति त्ति उत्तं । अमुत्तस्स मुत्तेहि अमुत्तेहि वा बंधो णस्थि त्ति मोक्खाभावमिच्छत्तदुण्णयणिवारणटुं मुच्चंति त्ति उत्तं । असरीरस्स इंदियाणमभावादो विसयसेवा णत्थि तदो तेसिं सुहं णत्थि
शंका-सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्युत होकर मनुष्य होनेवाले जीवोंके वासुदेवत्व क्यों नहीं होता?
___ समाधान नहीं, क्योंकि वासुदेवत्वकी उत्पत्तिमें उससे पूर्व मिथ्यात्वके अविनाभावी निदानका होना अवश्यंभावी है।
शंका - उनके अवधिशान नियमसे होता है, सो कैसे ?
समाधान नहीं, क्योंकि उनके अननुगामी, हीयमान व प्रतिपाती अवधिसानोंका अभाव है।
सकल कार्योंको समाप्त कर लेने अर्थात् कृतकृत्यसे हो जानेसे सर्वार्थसिद्धि विमानसे आये हुए मनुष्य आत्मस्वरूपको प्राप्त करके सिद्ध होते हैं । अनवगत पदार्थों के अभावसे अथवा अज्ञानके कणमात्रके भी अभावसे, अथवा सिद्धोंके वुद्धि-अभावको उत्पन्न करनेवाले दुर्नयके निवारणार्थ, अथवा सिद्ध केवल आत्माको जानता है बाह्यार्थको नहीं जानता, ऐसे दुयके निवारणार्थ सूत्रमें 'बुझंति ' अर्थात् 'बुद्ध होते हैं ' यह पद कहा गया है। 'अमूर्तका मूर्त अथवा अमूर्तोंके साथ बन्ध नहीं होता' ऐसा मोक्षके अभावसम्बन्धी मिथ्यात्वरूपी दुर्नयके निवारणार्थ 'मुच्चंति' अर्थात् 'मुक्त होते हैं ' यह पद कहा गया है। जिसके शरीर नहीं है उसके इन्द्रियोंका भी अभाव होनेसे विषयसेवा नहीं हो सकती, अतएव मुक्त जीवोंके सुख नहीं है।
दक्षिणेन्द्रास्तथा लोकपाला लौकान्तिकाः शची । शक्रश्च नियमाच्च्युत्वा सर्वे ते यान्ति निर्वृतिम् ॥ तत्त्वार्थसार २, १७४-१७५.
१ प्रतिषु -हायमाणस्स पडिवादि-' इति पाठः । वर्धमानो हीयमानः अवस्थितः अनवस्थितः अनुगामी अननुगामी अप्रतिपाती प्रतिपातीत्येतेऽष्टी भेदा देशावधेर्भवन्ति । त. रा. १, २२.
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