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________________ ५०० ] छक्खडागमे जीवाणं [ १, ९-९, २४१. सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा देवेहि चुदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥ २४१ ॥ एक्कं हि चैव मणुसगदिमागच्छंति ॥ २४२ ॥ मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा तेसिमाभिणिबोहियणाणं सुदगाणं ओहिणाणं च णियमा अत्थि, केहूं मणपज्जवणाणमुप्पाएंति, केवलणाणं णियमा उप्पाएंति । सम्मामिच्छत्तं णत्थि, सम्मत्तं णियमा अस्थि । केइं संजमा संजममुप्पाएंति । संजमं णियमा उप्पाएंति । केई बलदेवत्तमुपाएंति, णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति । केई चक्कवट्टित्तमुप्पाएंति, केई तित्थयरत्तमुप्पाएंति । सव्वे ते णियमा अंतयडा होतॄण सिज्यंति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुःखाणमंतं परिविजाणंति ॥ २४३ ॥ सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव देवपर्यायोंसे च्युत होकर कितनी गतियोंमें आते हैं १ ॥ २४१ ॥ सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव च्युत होकर केवल एक मनुष्यगतिमें ही आते हैं ।। २४२ ।। 1 सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान नियमसे होता है । कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं । केवलज्ञान वे नियमसे उत्पन्न करते हैं । उनके सम्यग्मिथ्यात्व नहीं होता, किन्तु सम्यक्त्व नियमसे होता है । कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं, किन्तु संयम नियमसे उत्पन्न करते हैं । कोई वलदेवत्व उत्पन्न करते हैं, किन्तु वासुदेवत्व उत्पन्न नहीं करते । कोई चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं, कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं । वे सब नियमसे अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं और सर्व दुखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ॥ २४३ ॥ १ भाज्यास्तीर्थेशचकित्वे च्युताः सर्वार्थसिद्धितः । विकल्पा रामभावेऽपि सिद्धयन्ति नियमात्पुनः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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