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छक्खडागमे जीवाणं
[ १, ९-९, २४१.
सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा देवेहि चुदसमाणा कदि गदीओ
आगच्छंति ? ॥ २४१ ॥
एक्कं हि चैव मणुसगदिमागच्छंति ॥ २४२ ॥
मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा तेसिमाभिणिबोहियणाणं सुदगाणं ओहिणाणं च णियमा अत्थि, केहूं मणपज्जवणाणमुप्पाएंति, केवलणाणं णियमा उप्पाएंति । सम्मामिच्छत्तं णत्थि, सम्मत्तं णियमा अस्थि । केइं संजमा संजममुप्पाएंति । संजमं णियमा उप्पाएंति । केई बलदेवत्तमुपाएंति, णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति । केई चक्कवट्टित्तमुप्पाएंति, केई तित्थयरत्तमुप्पाएंति । सव्वे ते णियमा अंतयडा होतॄण सिज्यंति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुःखाणमंतं परिविजाणंति
॥ २४३ ॥
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव देवपर्यायोंसे च्युत होकर कितनी गतियोंमें आते हैं १ ॥ २४१ ॥
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव च्युत होकर केवल एक मनुष्यगतिमें ही आते हैं ।। २४२ ।।
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सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान नियमसे होता है । कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं । केवलज्ञान वे नियमसे उत्पन्न करते हैं । उनके सम्यग्मिथ्यात्व नहीं होता, किन्तु सम्यक्त्व नियमसे होता है । कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं, किन्तु संयम नियमसे उत्पन्न करते हैं । कोई वलदेवत्व उत्पन्न करते हैं, किन्तु वासुदेवत्व उत्पन्न नहीं करते । कोई चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं, कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं । वे सब नियमसे अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं और सर्व दुखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ॥ २४३ ॥
१ भाज्यास्तीर्थेशचकित्वे च्युताः सर्वार्थसिद्धितः । विकल्पा रामभावेऽपि सिद्धयन्ति नियमात्पुनः ॥
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