SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 559
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-९, २४०. ] चूलियाए गदियागदियाए देवाणं गदीओ गुणुप्पादणं च [४९९ मणपजवणाणमुप्पाएंति, केवलणाणमुप्पाएंति । सम्मामिच्छत्तं पत्थि, सम्मत्तं णियमा अत्थि । केइं संजमासंजममुप्पाएंति, संजमं णियमा उप्पाएंति । केई बलदेवत्तमुप्पाएंति, णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति । केइं चक्कवट्टित्तमुप्पाएंति, केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति, केइमंतयडा होदूण सिझंति बुझंति मुचंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुःखाणमंतं परिजाणंति ॥ २४०॥ मदि-सुदणाणं व ओहिणाणं णियमा किण्ण होदि ति ? ण एस दोसो, अणणुगामिणो ओहिणाणस्स अणुगमाभावादो । ण च तत्थ सव्वेसिमोहिणाणमणुगामी चेव, अणणुगामिणो वि ओहिणाणस्स तत्थ संभवादो। देवा देवभावादो, देवेहितो देवणिकायादो । सेसं सुगमं । नहीं भी होता है। कोई मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं । उनके सम्यग्मिथ्यात्व नहीं होता, किन्तु सम्यक्त्व नियमसे होता है । कोई संयमासंयमको उत्पन्न करते हैं, संयमको नियमसे उत्पन्न करते हैं । कोई बलदेवत्व उत्पन्न करते हैं, किन्तु वासुदेवत्व उत्पन्न नहीं करते । कोई चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं, कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं, कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं, सर्व दुखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ॥ २४ ॥ शंका-अनुदिशादि विमानोंसे च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके मतिक्षान और श्रुतज्ञानके समान अवधिज्ञान भी नियमसे क्यों नहीं होता ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, अननुगामी अवधिज्ञानके अनुगमका अभाव है। और अनुदिशादि विमानोंमें सभीका अवधिज्ञान अनुगामी होता नहीं है, क्योंकि वहां अननुगामी अवधिज्ञानका भी होना संभव है। सूत्रमें जो 'देवा' शब्द आया है उसका अभिप्राय है 'देवभावसे' और जो 'देवेहिंतो' शब्द आया है उसका अभिप्राय है 'देवनिकायसे'। शेष सूत्रार्थ सुगम है। १ तीर्थशरामचक्रित्वे निर्वाणगमनेन च । च्युताः सन्तो विकल्प्यन्तेऽनुदिशानुत्तरामराः ॥ तत्त्वार्थसार २, १७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy