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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं (१, ९-९, २४३. त्ति भणंतदुण्णयणिवारणटुं परिणिव्वाणयंति ति उत्तं । संते सुहे दुक्खेण वि होदव्वं, अण्णहा सुहाणुववत्तीए इदि भगतदुग्णयणिवारण९ सयदुक्खाणमंतं परिविजाणंति त्ति उत्तं ।
एवं चूलिया समत्ता।
जीवट्ठाणं समत्तं ।
ऐसा कहनेवालोंके दुर्नयके निवारणार्थ 'परिणिव्याणयंति' अर्थात् परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं, ऐसा कहा गया है। 'जहां सुख है, तहां दुख भी होना चाहिये, नहीं तो सुखकी उपपत्ति नहीं बन सकती' ऐसा कहनेवालोंके दुर्नयके निवारणार्थ 'सर्व दुःखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ' ऐसा कहा गया है।
इस प्रकार चूलिका समाप्त हुई ।
जीवस्थान समाप्त ।
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