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________________ १, ९-९, २३४. ] चूलियाए गदियागदियाए देवाणं गदीओ गुणुप्पादणं च [[४९. दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो' नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्।। दिशन्न कांचिद्विदिशन्न कांचित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ २॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिक्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ ३ ॥ इति स्वरूपविनाशो मोक्ष इति बौद्धैरभाणि', तन्मतनिरासार्थ सिद्धयन्तीत्युच्यते । सेसं सुगमं । सोहम्मीसाण जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवा जधा देवगदिभंगो॥ २३४ ॥ सुगममेदं । "जिस प्रकार दीपक जब बुझता है तब वह न तो पृथिवीकी ओर जाता न आकाशकी ओर, न किसी दिशाको जाता है, न विदिशाको, किन्तु तैलके क्षय होनेसे केवल शान्त हो जाता है, उसी प्रकार निर्वृतिको प्राप्त जीव न पृथिवीकी ओर जाता न आकाशकी ओर, न किसी दिशाको जाता न विदिशाको, किन्तु क्लेशके क्षय हो जानेसे केवल शान्तिको प्राप्त होता है ॥२-३॥ इस प्रकार स्वरूपके विनाशका नाम ही मोक्ष है," ऐसा बौद्धोका कहना है। इसी मतके निराकरणार्थ सूत्र में 'सिद्ध होते हैं' ऐसा कहा गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। सौधर्म-ईशानसे लेकर शतार-सहस्रार तकके देवोंकी गति सामान्य देवगतिके समान है ॥ २३४ ॥ यह सूत्र सुगम है। . १ अप्रतौ ‘-मभ्युपैति ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' सान्तरिक्षम् ' इति पाठः । ३ सौन्दरानन्द १६, २८-२९. ४ प्रदीपनिर्वाणकल्पमात्मनिर्वाणमिति च तस्य खरविषाणवत्कल्पना तैरेवाहत्य निरूपिता। स. सि. १, १. रूपवेदनासंज्ञासंस्कारविज्ञानपंचकस्कंधनिरोधादभावो मोक्षः... तन्न । त. रा. १, १. नवानामात्मगुणानां बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणां निर्मूलोच्छेदोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । ननु तस्यामवस्थायां शिष्यते । स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ॥ न्यायमंजरी पृ. ५०८. ५ सोहम्मादी देवा भज्जा हु सलागपुरिसणिवहेसुं। णिस्सेयसगमणेसुं सव्वे वि अणंतरे जम्मे ॥णवरि विसेसो सव्वट्ठसिद्धिठाणदो विच्चुदा देवा ॥ भज्जा सलागपुरिसा णिव्वाणं जंति णियमेणं ॥ ति. प. ८,६८२-६८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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