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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ९-९, २३२.
तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा केई छ उप्पाएंति ॥ २३२॥
सन्त्रमेदं सुगमं ।
मणुसेसु उववण्णलया मणुसा केई दस उप्पा एंति - केइमाभिणिबोहियणाणमुप्पाएंति, केई सुदणाणमुप्पाएंति, केइमोहिणाणमुप्पा एंति, केई मणपज्जवणाणमुप्पाएंति, केहूं केवलणाणमुप्पाएंति, केई सम्मामिच्छत्तमुप्पाएंति, केई सम्मत्तमुप्पाएंति, केई संजमा संजममुप्पाएंति, केई संजममुप्पा एंति | णो बलदेवत्तं उप्पाएंति, णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति, णो चक्कवट्टित्तमुप्पाएंति, णो तित्थयरत्तमुप्पाएंति । केइमंतयडा होदूण सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुःखाणमंतं परिविजाणंति ॥ २३३ ॥
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उक्त भवनवासी आदि देव देवियां तिर्यचों में उत्पन्न होनेवाले तिर्यच होकर कोई छह उत्पन्न करते हैं ॥ २३२ ॥
ये सब सूत्र सुगम हैं ।
उक्त भवनवासी आदि देव देवियां मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य होकर कोई दश उत्पन्न करते हैं— कोई आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई श्रुतज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं, और कोई संयम उत्पन्न करते हैं । किन्तु वे न बलदेवत्व उत्पन्न करते, न वासुदेवत्व उत्पन्न करते, न चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते और न तीर्थकत्व उत्पन्न करते हैं । कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं, सर्व दुखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ॥ २३३ ॥
१ किंता भवणादो XXX सलागपुरिसा ण होंति कइयाई ॥ ति. प. ३, १९५-११६. शलाकापुरुषा न स्युभौम ज्येोतिष्कभावनाः । अनन्तरभवे तेषां भाज्या भवति निर्वृतिः ॥ ततः परं विकल्प्यन्ते यावद मैत्रेय कं सुराः । शलाकापुरुत्वेन नित्रीगमनेन च ॥ तच्चार्थसार २, १९७१- १७२.
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