________________
४९२]
छक्खंडागमे जीवाणं [१, ९-९, २२०. - मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा केइमेक्कारस उप्पाएंतिकेइमाभिणिवोहियणाणमुप्पाएंति, केई सुदणाणमुप्पाएंति, केई मणपजवणाणमुप्पाएंति, केइमोहिणाणमुप्पाएंति, केई केवलणाणसुप्पाएंति, केइं सम्मामिच्छत्तमुप्पाएंति, केई सम्पराम्पाएंति, केइं संजमासंजममुप्पाएंति, केइं संजमनुप्पाएंति। यो चलदेवतं जो वासुदेवत्तमुप्पाएंति, णो चक्कवट्टित्तमुप्पाएंति । केई तित्यपरत्तदुप्पारंति, केइमंतयडा होदूण सिझंति बुझंति मुचंति परिगिलाणयंति सव्वदुःखाणमंतं परिविजाणंति ॥ २२० ।।
सुगममेदं ।
तिरिक्खा गणुसा तिरिक्स मणुलेहि नलगदलमाणा कदि गदीओ गच्छंति ॥ २२१ ॥
ऊपरकी तीन पृथिनियों से निकलकर गनुमोन उत्पन्न होनेवाले मनुष्य कोई ग्यारह उत्पन्न करते हैं- कोई आभिनियोधिक ज्ञान उपान करते है, कोई श्रुतज्ञान उत्पन करते हैं, कोई मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, होई अधिमा उत्पन करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सभ्यथिमाल उत्पन्न करते है, ईलम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते है, और को संशम उत्पन करते हैं। किन्तु वे जीव न बलदेवत्व उत्पन्न काते, न बासुदेवल उत्थान करते, और न चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं । कोई तीर्थ करत्व उत्या करते हैं, कोई अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, चुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्माणको प्राप्त होते है, बस दुखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ॥ २२० ॥
यह सूत्र सुगम है।
तिर्यंच व मनुब्ध, तिथंच व मनुष्य पायोनिमा करके, कितनी गतियों में जाते हैं ? ॥ २२१॥
१ निर्गय नार का न स्युल-के.चक्रिणः । तत्वायसार २, १५२. २ उपरि तिसृभ्य उद्वतिनास्तिर्यक्षु जाताः केचि बहु पादयन्ति । मन यत्पलाः कचिन्मतियतावधि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org