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________________ 7 १, ९-९, २१९. ] चूलियाए गदियागदियाए णेरइयाणं गदीओ गुणुप्पादणं च [ ४९१ दुःखाविनाभावित्वात्सुखस्येति तार्किकयोरेव मतं तन्निराकरणार्थं सर्वदुःखाणमंत परिविजातीति उच्यते । सर्वदुःखानामन्तं पर्यवसानं परिविजानन्ति गच्छन्तीत्यर्थः । कुतः ? दुःखहेतुकर्मणां विनष्टत्वात्, स्वास्थ्यलक्षणस्य' सुखस्य जीवस्य स्वाभा चिकत्वादिति ) तिसु उवरिमासु पुढवी णेरइया णिरयादो णेरइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गढ़ीओ आगच्छंति ? ॥ २१७ ॥ दुवे गढ़ीओ आगच्छंति तिरिक्खगदिं मणुसगदिं चैव ॥२१८॥ तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा केई छ उप्पाएंति ॥ २१९ ॥ सव्यमेदं सुगमं । सम्बन्ध है, ऐसा दोनों ही तार्किकोंका मत है। उसी मतके निराकरणार्थ 'सर्व दुखों के अन्त होनेका अनुभव करते हैं' ऐसा कहा गया है । इसका अर्थ यह है कि वे जीव समस्त दुःखोंके अन्त अर्थात् अवसानको पहुंच जाते हैं, क्योंकि उनके दुःखके हेतुभूत कमका विनाश हो जाता है और स्वास्थ्यलक्षण सुख जो जीवका स्वाभाविक गुण है वह प्रकट हो जाता है। ऊपरकी तीन पृथिवियोंके नारकी जीव नरकसे नारकी होते हुए निकलकर कितनी गतियों में आते हैं ? ।। २१७ ॥ ऊपरी तीन पृथिवियोंसे निकलनेवाले नारकी जीव दो गतियों में आते हैंतिर्यंचगति और मनुष्यगति ॥ २९८ ॥ ऊपरकी तीन पृथिवियोंसे निकलकर तिर्यंचों में उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच कोई छह उत्पन्न करते हैं ॥ २१९ ॥ यह सब सुगम है । १ स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्त्रार्थो न भोगः परिभङ्गरात्मा । तृषोsनुषङ्गान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद भगवान् सुपार्श्वः || बृहत्स्वयंभू स्तोत्र ३१. आत्मोत्थमात्मना साध्यमव्याबाधमनुत्तरम् । अनन्तं स्वास्थ्य - मानन्दमतृष्णमपवर्गजम् | क्षत्रचूडामणि ७, १३. आत्मा ज्ञातृतया ज्ञाने सम्यक्त्वं चरितं हि सः । स्वस्थ दर्शनचारित्र मोहाभ्यामनुप्लुतः | तत्त्वार्थसार, उपसंहार, ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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