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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं (१, ९-९, २१६. अष्टकर्मणामंतं विनाशं कुर्वन्तीति अन्तकृतः । अंतकृतो भूत्वा सिझंति सिद्धयन्ति निस्तिष्ठंति निष्पद्यन्ते स्वरूपेणेत्यर्थः । बुझंति त्रिकालगोचरानन्तार्थव्यंजनपरिणामात्मकाशेषवस्तुतचं बुद्ध्यन्ति अवगच्छन्तीत्यर्थः ।
केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति कपिलो ब्रूते । तन्न, तन्निराकरणार्थ बुद्धयन्त इत्युच्यते । मोक्षो हि नाम बन्धपूर्वकः, बन्धश्च न जीवस्यास्ति, अमूर्तत्वानित्यत्वाच्चेति । तस्माज्जीवस्य न मोक्ष इति नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसकमतम् । एतन्निराकरणाथै मुच्चंतीति प्रतिपादितम् । परिणिव्वाणयंति- अशेषबन्धमोक्षे सत्यपि न परिनिर्वान्ति, सुख-दुःखहेतुशुभाशुभकर्मणां तत्रासत्वादिति तार्किकयोर्मतं । तन्निराकरणार्थं परिनिर्वान्ति अनन्तसुखा भवन्तीत्युच्यते । यत्र सुखं तत्र निश्चयेन दुःखमप्यस्ति,
जो आठ कर्मोंका अन्त अर्थात् विनाश करते हैं वे अन्तकृत् कहलाते हैं । अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, निष्ठित होते हैं व अपने स्वरूपसे निष्पन्न होते हैं, ऐसा अर्थ जानना चाहिये । 'जानते हैं' अर्थात् त्रिकालगोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्यायात्मक अशेष वस्तुतत्त्वको जानते हैं व समझते हैं।
कपिलका कहना है कि केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी सब वस्तुस्वरूपका ज्ञान नहीं होता। किन्तु ऐसा नहीं है, अतः इसीके निराकरण करने के लिये 'बुद्ध होते हैं' यह पद कहा गया है । मोक्ष बन्धपूर्वक ही होता है, किन्तु जीवके तो बन्ध ही नहीं है, क्योंकि जीव अमूर्त है और नित्य है । अतएव जीवका मोक्ष नहीं होता। ऐसा नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसकोंका मत है। इसी मतके निराकरणार्थ 'मुक्त होते हैं' ऐसा प्रतिपादित किया गया है। 'परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं ' इस पद की सार्थकता इस प्रकार है- अशेष बन्धका मोक्ष हो जाने पर भी जीव परिनिर्वाणको प्राप्त नहीं होते, क्योंकि उस मुक्त अवस्थामें सुखके हेतु शुभकर्म और दुखके हेतु अशुभ कर्मोका अभाव पाया जाता है, ऐसा दोनों तार्किकोंका मत है। इसी तार्किकमतके निराकरणार्थ 'परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं' अर्थात् अनन्त सुखका उपभोग करनेवाले होते हैं, ऐसा कहा गया है। जहां सुख है वहां निश्चयसे दुख भी है, क्योंकि सुखका दुखके साथ अविनाभावी
१ प्रतिषु बन्धकश्च' इति पाठः।
२ स्यादेतत् पुरुषश्चेदगुणोऽपरिणामी कथमस्य मोक्षः। मुबन्धनविश्लषार्थत्वात् सवासनक्लेशकाशयानाञ्च बन्धनसंज्ञितानां पुरुषे अपरिणामिन्यसम्भवात् । अतएवास्य न संसारः प्रेत्यभावापरनामास्ति, निष्क्रियत्वात् । तस्मात्पुरुषविमोक्षार्थमिति रिक्तं वचः । इतीमामाशङ्कामुपसंहारव्याजेनाभ्युपगच्छन्नपाकरोति- तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥ ६२ ॥ सांख्यतत्वकौमुदी.
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