________________
१, ९-९, २१६. ] चूलियार गदियागदियाए णेरइयाणं गदीओ गुणुप्पादणं च [४८९
तिरिक्खेसु उववण्णलया तिरिक्खा केई छ उप्पाएंति ॥२१५॥ ताणि वि सुपसिद्धाणि तिणेह परुपियाई । । मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा केई दस उप्पाएंति--केइमाहिणिबोहियणाणमुपाएंति, केई सुदणाणमुप्पाएंति, केइमोहिणाणमुप्पाएंति, केइं मणपज्जवणाणगुप्पाएंति, केइं केवलणाणमुप्पाएंति, केई सम्मामिच्छत्तमुप्पाएंति, केइं सम्पत्तमुप्पाएंति, केई संजमासंजममुप्पाएंति, केइं संजममुप्पाएंति । णो बलदेवतं णो वासुदेवत्तं गो चक्कवट्टितं णो तित्थयरत्तं । केइमंतगडा होदूण सिझंति बुझंति मुचंति परिणिव्वाणयंति सबदुवमाणमंतं परिविजाणंति ।। २१६ ॥
तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्थन कोई छह उत्पन्न करते हैं ॥ २१५ ॥
वे छह पूर्वोक्त होने के कारण सुपसिह है, अतएव यहां उनका प्ररूपण नहीं किया गया।
गनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कोई दश उत्पन्न करते हैं- कोई आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन करते हैं, कोई शुत्रज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मनःपर्यवज्ञान उत्पन करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई खपाव उत्पन करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं, और कोई संयम उत्पन्न करते हैं । वे न बलदेवत्व उत्पन्न करते, न वासुदेवत्व, न चक्रवर्तित्व, और न तीर्थंकरत्व । कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं, व सर्व दुःखोंके अन्त होनेका अनुभव करते हैं ।। २१६ ॥
१ चतुर्थी उद्धर्तितातिर्ण पन्नाः चिन्मत्यादीन् षहुत्पादयन्ति, न सर्वे, नायतोन्यत् । त. रा.३, ६.
२ मनुष्यपुत्पन्नाः केचिन्मतिश्रुताबवियनःपर्ययकेवलसम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वसंयमासंयमसंयमानुत्पादयन्ति, न च बलदेवत्रासदेवचक्रधरतीर्थकरत्वान्युत्पादयन्ति, केचित्कर्माष्ट कान्त कराः सिध्यन्ति। द. रा. ३, ६. लभन्ते निवृति केचिच्चतुर्थ्या निर्गताः क्षितेः । न पुनः प्राप्नुवत्येव पवित्र तीर्थ कर्तृताम् ॥ तत्त्वार्थसार २, १५१. मणुस्सा णं भंते ! अणंतरं उबाहिता कहिं गच्छंति कहिं उववति । किनेरइएम उववज्जंति जाव देवेसु उववजंति ? गोयमा! नेरइएस नि उववज्जति जाव देवेस वि उवाजंति | xxx अत्थेगतिया सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिवायंति, सबदुक्खाणं अंतं करेंति । प्रज्ञापना ६, ६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org