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________________ ४८८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९–९, २१२. मणुस्सेसु उववण्णल्लया मणुसा के मट्टमुप्पाएंति - के इमाभिणिबोहियणाणमुप्पाएंति, केई सुदणाणमुप्पाएंति, केइमोहिणाणमुप्पाएंति, केई मणपज्जवणाणमुप्पाएंति, केई सम्मामिच्छत्तमुप्पाएंति, केई सम्मत्तमुपाएंति, केई संजमा संजममुप्पाएंति, केई संजममुप्पा एंति ॥ २१२ ॥ कुदो ? पंचमी आगदस्स तिव्वसंकिलेसाभावादो । सेसं सुगमं । उत्थी पुढवीए रइया णिरयादो णेरड्या उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥ २१३ ॥ दुवे गदीओ आगच्छंति तिरिक्खगदं चैव मणुस गई चेव ॥ २१४ ॥ सव्वमेदं सुगमं । मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य कोई आठको उत्पन्न करते हैं - कोई आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई श्रुतज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं, और कोई संयम उत्पन्न करते हैं ॥ २१२ ॥ क्योंकि, पांचवीं पृथिवीसे आये हुए जीवके तीव्र संक्लेशका अभाव है। शेष सूत्रार्थ सुगम है | चौथी पृथिवी नारकी जीव नरकसे नारकी होते हुए निकलकर कितनी गतियों में आते हैं ? ॥ २१३ ॥ चौथी पृथिवी से निकलनेवाले नारकी जीव दो गतियोंमें आते हैं- तिर्यंचगति और मनुष्यगति ।। २१४ ॥ ये सब सूत्र सुगम हैं । १ मनुष्येषूत्पन्नाः केचिन्मति श्रुतावधिमनः पर्ययसम्यक्त्वसम्यङ् मिथ्यात्वसंयमासंयमसंयमानुत्पादयन्ति, न सर्वे, नाप्यतोन्यत् । त. रा. ३, ६. निर्गताः खलु पञ्चम्या लभन्ते केचन व्रतम् । प्रयान्ति न पुनर्मुक्तिं भावसंक्लेशयोगतः ॥ तत्त्वार्थसार २, १५०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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