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१, ९-९, २०६. ] चूलियाए गदियागदियाए हेरइयाणं गदीओ गुणुप्पादणं च [४८५ णो उप्पाएंति, सम्मामिच्छत्तं णो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति ॥ २०५॥
तित्थयरादीणं पडिसेहो एत्थ किण्ण कदो ? ण, तिरिक्खेसु तेसिं संभवाभावा, सव्वस्स पडिसहस्स पत्तिपुवस्सुवलंभादो। सासणगुणपडिसेहो किण्ण कदो ? ण, सम्मत्ते पडिसिद्धे तत्तो उप्पज्जमाणसासणसम्मत्तगुणपडिसेहस्स अणुत्तसिद्धीदो।
छट्टीए पुढवीए णेरइया णिरयादो णेरइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥ २०६॥
ज्ञानको उत्पन्न नहीं करते, सम्यग्मिथ्यात्व गुणको उत्पन्न नहीं करते, सम्यक्त्वको उत्पन्न नहीं करते, और संयमासंयमको उत्पन्न नहीं करते ॥ २०५॥
__ शंका-(तिर्यंचोंमें तीर्थंकर आदि भी तो उत्पन्न नहीं होते, अतएव ) तीर्थकरादिका भी यहां प्रतिषेध क्यों नहीं किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि तीर्थकरादिकोंका तो तिर्यंचोंमें उत्पन्न होना संभव ही नहीं है । सर्व प्रतिषेधमें पहले प्रतिषेध्य वस्तुकी उपलब्धि पाई जाती है।
शंका-उपर्युक्त तिर्यंचोंमें सासादन गुणस्थानकी प्राप्तिका प्रतिषेध क्यों नहीं किया?
समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वका प्रतिषेध कर देनेपर सम्यक्त्वसे उत्पन्न होनेवाले सासादनसम्यक्त्व गुणके प्रतिषेधकी सिद्धि विना कहे ही हो जाती है ।
विशेषार्थ-यहां सप्तम नरकसे आये हुए तिर्यंच जीवोंके सम्यक्त्वकी प्राप्तिका सर्वथा प्रतिषेध किया गया है, किन्तु तिलोयपण्णत्ति (२,२९२) तथा प्रज्ञापना (२०,१०) 'में उनसे कितने ही जीवों द्वारा सम्यक्त्वग्रहण किये जानेका विधान पाया जाता है।
छठवीं पृथिवीके नारकी नरकसे नारकी होते हुए निकलकर कितनी गतियों में आत हैं ? ॥ २०६॥
१ आतरिमखिदी चरमंगधारिणो संजदा य धूमतं । छद्रुतं देसवदा सम्मत्तधरा केइ चरिमंतं ॥ ति.प. २,२९२. अहेसत्तमपुढवी-पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समढे, सम्मतं पुण लभेज्जा । प्रज्ञापना २०, १०. सप्तभ्योऽपि सदृशः ॥ लो. प्र. १४, ११.
२ सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेभ्य उद्वर्तिता एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यवायाताः पंचेन्द्रियगर्भजपर्याप्तकसंख्येयवर्षायुःत्पद्यन्ते नेतरेषु । तत्र चोत्पन्नाः सर्वे मतिश्रुतावधिसम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वसंयमासंयमानोत्पादयन्ति । त. रा. ३, ६.
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