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________________ १८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, १९२. एदं पि सुगमं । आणदादि जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी देवा देवेहि चुदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥ १९२॥ सुगममेदं । एकं हि चेव मणुसगदिमागच्छंति ॥ १९३ ॥ कुदो ? सुक्कलेस्सियाणं तेसिं मणुसाउएण विणा अण्णाउआणं बंधाभावा । मणुसेसु आगच्छंता गब्भोवक्कंतिएसु आगच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु ॥ १९४ ॥ गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ १९५॥ यह सूत्र भी सुगम है। आनतसे लगाकर नव ग्रैवेयकविमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव देवपर्यायोंसे च्युत होकर कितनी गतियोंमें आते हैं ? ॥ १९२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त देव केवल एक मनुष्यगतिमें ही आते हैं ॥ १९३॥ क्योंकि, शुक्ललेझ्यावाले उपर्युक्त देवोंके मनुष्यायुको छोड़ अन्य आयुओंके बन्धका अभाव है। मनुष्योंमें आनेवाले उपर्युक्त देव गर्भोपक्रान्तिकोंमें आते हैं, सम्मूछिमोंमें नहीं आते ॥ १९४ ॥ गर्भोपक्रान्तिक मनुष्योंमें आनेवाले उपर्युक्त देव पर्याप्तकोंमें आते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं आते ॥ १९५॥ १ ततो उवरिमदेवा सव्वा सुक्काभिधाणलेस्साए। उप्पज्जति मणुरसे णत्थि तिरिक्खेसु उववादो। ति. प. ८, ६८०. ततः परं तु ये देवास्ते सर्वेऽनन्तरे भवे । उत्पद्यन्ते मनुष्येषु न हि तिर्यक्षु जातुचित् ।। तत्त्वार्थसार २, १७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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