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________________ १, ९-९, १९१.] चूलियाए गदियागदियाए देवाणं गदीओ [४८१ मणुसेसु आगच्छंता गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु॥ १८७॥ ___ गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ १८८॥ पज्जत्तएसु आगच्छंता संखेज्जवासाउएसु आगच्छंति, णो असंखेज्जवस्साउएसु ॥ १८९ ॥ सव्वं सुगममेदं । भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिय-सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवेसु देवगदिभंगो ॥ १९०॥ एदं पि सुगमं । सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु पढमपुढवीभंगो । णवरि चुदा त्ति भाणिदव्वं ॥ १९१ ॥ मनुष्योंमें आनेवाले सम्यग्दृष्टि देव गर्भोपक्रान्तिकोंमें आते हैं, सम्मूछिमोंमें नहीं आते ॥ १८७ ॥ गर्भोपक्रान्तिक मनुष्योंमें आनेवाले सम्यग्दृष्टि देव पर्याप्तकोंमें आते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं आते ॥ १८८ ॥ __पर्याप्तक ग पक्रान्तिक मनुष्योंमें आनेवाले सम्यग्दृष्टि देव संख्यातवर्षायुष्कोंमें आते हैं, असंख्यातवर्षायुष्कोंमें नहीं आते ॥ १८९ ॥ __ ये सब सूत्र सुगम हैं। भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासी देवोंकी गति उपर्युक्त देवगतिके समान है ॥ १९० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। सनत्कुमारसे लगाकर शतार-सहस्रार कल्पवासी देवोंकी गति प्रथम पृथिवीके नारकी जीवोंकी गतिके समान है । केवल यहां 'उद्वर्तित होते हैं ' के स्थान पर 'च्युत होते हैं। ऐसा कहना चाहिये ॥ १९१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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