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________________ ४८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, १८२. गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ १८२॥ पज्जत्तएसु आगच्छंता संखेज्जवासाउएसु आगच्छंति, णो असंखेज्जवासाउएसु ॥ १८३ ॥ - सव्वमेदं सुगमं । देवा सम्मामिच्छाइट्ठी सम्मामिच्छत्तगुणेण देवा देवेहिं णो उव्वटुंति, णो चयंति ॥ १८४ ॥ सुगममेदं । देवा सम्माइट्ठी देवा देवेहि उव्वट्टिद-चुदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥ १८५॥ एकं हि चेव मणुसगदिमागच्छंति ॥ १८६॥ कुदो ? देवसम्माइट्ठीणं मणुसाउअं मोत्तूण अण्णाउआणं बंधा मावादो । . गर्भापक्रान्तिक मनुष्योंमें आनेवाले उपर्युक्त देव पर्याप्तकोंमें आते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं आते ॥ १८२ ।। पर्याप्तक मनुष्योंमें आनेवाले उपर्युक्त देव संख्यातवर्षायुष्कोंमें आते हैं, असंख्यातवर्षायुष्कोंमें नहीं आते ॥ १८३ ॥ ये सब सूत्र सुगम हैं। देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान सहित देवपर्यायोंसे न उद्वर्तित होते हैं और न च्युत होते हैं ॥ १८४॥ ___ यह सूत्र सुगम है। देव सम्यग्दृष्टि देव देवपर्यायोंसे उद्वर्तित व च्युत होकर कितनी गतियोंमें आते हैं ? ॥ १८५ ॥ सम्यग्दृष्टि देव मरण कर केवल एक मनुष्यगतिमें ही आते हैं ॥१८६ ॥ क्योंकि, सम्यग्दृष्टि देवोंके मनुष्यायुको छोड़ अन्य आयुओंके बन्धका अभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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