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________________ १, ९-९, १८१.] चूलियाए गदियागदियाए देवाणं गदीओ [ ४७९ पंचिंदिएसु आगच्छंता सण्णीसु आगच्छंति, णो असणीसु ॥ १७७ ॥ सण्णीसु आगच्छंता गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु ॥ १७८ ॥ ___ गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ १७९ ॥ पज्जत्तएसु आगच्छंता संखेज्जवासाउएसु आगच्छंति, णो असंखेज्जवासाउएसु ॥ १८० ॥ कुदो ? दाण-दाणाणुमोदाणमभावादो, सभावदो वा । सेसं सुगमं । मणुसेसु आगच्छंता गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु ॥ १८१॥ ................................... पंचन्द्रियोंमें आनेवाले उपयुक्त देव संज्ञी तिर्यंचोंमें आते हैं, असंज्ञियोंमें नहीं ॥ १७७ ॥ संज्ञी तिर्यंचोंमें आनेवाले उपयुक्त देव गर्भोपक्रान्तिकोंमें आते हैं, सम्मच्छिमोंमें नहीं आते ॥ १७८ ॥ गर्भोपक्रान्तिकोंमें आनेवाले उपयुक्त देव पर्याप्तकोंमें आते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं आते ॥ १७९ ॥ पर्याप्तकोंमें आनेवाले उपर्युक्त देव संख्यातवर्षायुष्कोंमें आते हैं, असंख्यातवर्षायुष्कोंमें नहीं आते ॥ १८०॥ । क्योंकि, उपर्युक्त देवोंमें दान और दानके अनुमोदन (इन भोगभूमिमें उत्पत्तिके दो कारणों) का अभाव है। अथवा स्वभावसे ही उपर्युक्त देव असंख्यातवर्षायुष्क भोगभूमिके तिर्यंचोंमें नहीं उत्पन्न होते । शेष सूत्रार्थ सुगम है। __मनुष्योंमें आनेवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देव गर्भोपक्रान्तिकोंमें आते हैं, सम्मूछिमोंमें नहीं आते ॥ १८१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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