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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-९, १७४.
दुवे गदीओ आगच्छंति तिरिक्खगदिं मणुसगदिं चेव ॥१७४॥ कुद | देव - णिरयाउ आणं बंधाभावादो ।
तिरिक्खेसु आगच्छंता एइंदिय-पंचिंदिएस आगच्छंति, णो विगलिंदिए || १७५ ॥ कुदो ? सहावदो ?
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एइंदिए आगच्छंता बादर पुढवीकाइय- बादरआउकाइय- बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु
॥ १७६ ॥
नरकगति व भवनवासी, वानव्यतंर और ज्योतिषी, ये तीन देवगतियां हीन हैं, अतएव इनसे निकलनेके लिये 'उद्वर्तन' अर्थात् उद्धार होना कहा है। तिर्यच और मनुष्य गतियां सामान्य हैं, अतएव उनसे निकलने के लिये • काल करना ' शब्दका प्रयोग किया है । और सौधर्मादिक विमानवासियोंकी गति उत्तम है, अतएव वहांसे निकलनेके लिये 'च्युत होना' इस शब्द का उपयोग किया गया है। जहां देवगतिसामान्य से निकलने का उल्लेख आया है वहां भवनवासी आदि व सौधर्मादि देवोंकी अपेक्षा 'उद्वर्तित ' और
•
च्युत' दोनों शब्दों का उपयोग किया गया है ।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देव मरण कर तिर्यंचगति और मनुष्यगति, इन दो गतियोंमें आते हैं ॥ १७४ ॥
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क्योंकि, उक्त जीवोंके देव और नारक आयुओं के बंधका अभाव है ।
तिर्यचोंमें आनेवाले मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंमें आते हैं, विकलेन्द्रियोंमें नहीं आते ॥ १७५ ॥
क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है ।
एकेन्द्रियोंमें आनेवाले उपर्युक्त देव बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तक जीवोंमें आते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं ॥ १७६ ॥
१ आ ईसाणं देवा जणणा एइंदिएस भजिदव्वा । उवरि सहस्सारंतं ते भव्वा (सव्वा) सण्णितिरियमणुवते ॥ ति. प. ८, ६७९. आहारगा दु देवे देवाणं सण्णिकम्मतिरियणरे । पत्तेयपुढविआऊबादरपज्जतगे गमणं ॥ भवणतियाणं एवं तित्थूणणरेसु चेत्र उप्पत्ती । ईसाणताणेगे सदरदुगंताण सण्णीसु ॥ गो. क. ५४२ - ५४३. भाज्या एकेन्द्रियत्वेन देवा ऐशानतरच्युताः । तिर्यक्त्वमानुषत्वाभ्यामासहस्रारतः पुनः ॥ तत्त्वार्थसार २, १६९.
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