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________________ ४७२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-९, १५६. गम्भोवक्कतिएसु गच्छंता पज्जत्तएसु गच्छंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ १५६ ॥ पज्जत्तएसु गच्छंता संखेज्जवासाउएसु वि गच्छंति, असंखेजवासाउएसु वि गच्छंति ॥ १५७ ॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । मणुसेसु गच्छंता गम्भोवक्कंतिएसु गच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु ॥१५८ ॥ मणुस्सा सणिणो चैव, तेण सण्णि-असण्णिवियप्पो ण कदो। गम्भोवक्कंतिएसु गच्छंता पज्जत्तएसु गच्छंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ १५९ ॥ पज्जत्तएसु गच्छंता संखेज्जवासाउएसु (वि) गच्छंति, असंखेज्जवासाउएसु वि गच्छंति ॥ १६० ॥ ___ गर्भो पक्रान्तिकोंमें जानेवाले उपर्युक्त मनुष्य पर्याप्तकोंमें जाते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥ १५६ ॥ पर्याप्तकोंमें जानेवाले उपर्युक्त मनुष्य संख्यात वर्षकी आयुवालोंमें भी जाते हैं और असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें भी जाते हैं ॥ १५७॥ ये सूत्र सुगम हैं। __ मनुष्योंमें जानेवाले उपर्युक्त मनुष्य गर्भोपक्रान्तिकोंमें जाते हैं, सम्मूछिमोंमें नहीं ॥ १५८ ॥ __ मनुष्य केवल संज्ञी ही होते हैं, इसलिये उनमें संज्ञी और असंज्ञीका विकल्प नहीं किया गया। गर्भोपक्रान्तिकोंमें जानेवाले उपर्युक्त मनुष्य पर्याप्तकोंमें जाते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥१५९ ॥ पर्याप्तकोंमें जानेवाले उपर्युक्त मनुष्य संख्यातवर्षायुष्क मनुष्योंमें भी जाते हैं और असंख्यातवर्षायुष्क मनुष्योंमें भी जाते हैं ॥ १६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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