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१, ९-९, १३८.] चूलियाए गदियागदियाए तिरिक्खाणं गदीओ [४६७ गच्छंति । ण पुव्वुत्तदोसप्पसंगो। चेव सदो सेसगइणिसेहट्ठो ।
देवेसु गच्छंता भवणवासिय चाणवेंतर-जोदिसियदेवेसु गच्छंति ॥ १३६ ॥
किं कारणं ? सोहम्मादिउवरिमदेवेसु गमणजोग्गपरिणामाभावा ।
तिरिक्खा सम्मामिच्छाइट्ठी असंखेज्जवासाउआ सम्मामिच्छत्तगुणेण तिरिक्खा तिरिक्खेहि णो कालं करेंति ॥ १३७ ॥
कुदो ? तत्थ आउअकम्मस्स बंधाभावादो ।
तिरिक्खा असंजदसम्माइट्ठी असंखेज्जवासाउआ तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगदसमाणा कदि गदीओ गच्छंति ? ॥ १३८ ॥
सुगममेदं ।
केवल देवगतिको जाते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त सामानाधिकरण्यसम्बन्धी दोषका प्रसंग नहीं आता । 'चेव' शब्द शेष गतियोंका निषेध करनेके लिये है ।
देवों में जानेवाले पूर्वोक्त तिर्यंच भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जाते हैं ॥ १३६ ॥
इसका कारण यह है कि असंख्यातवर्षायुष्क मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंके सौधर्मादिक उपरिम देवोंमें गमन करनेके योग्य परिणामोंका अभाव है।
तियंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच जीव तिर्यंचपर्यायोंसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके साथ मरण नहीं करते ॥ १३७॥
क्योंकि, उक्त जीवोंके सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें आयुकर्मके वन्धका अभाव है।
तिथंच असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच जीव तिर्यंचपर्यायोंसे मरण करके कितनी गतियोंमें जाते हैं ? ॥ १३८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ असंख्येयवर्षायुषः तिर्यङ्मनुष्याः मिथ्यादृष्टयः सासादनसम्यग्दृष्टयश्च आ ज्योतिप्केभ्य उपजायन्ते । त. रा. ४, २१.
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