________________
४६६ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ९-९, १३४.
तिरिक्खमिच्छाइट्टी तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगदसमाणा कदि गदीओ गच्छंति ? ॥१३४॥
सासणसम्माहट्टी
असंखेज्जवासाउवा
सुगममेदं ।
एकहि चैव देवदिं गच्छति ॥ १३५ ॥
कुदो ? मंदकसायत्तादो', तत्थ देवाउअं मोचून अण्णेसिमाउआणं बंधाभावादो वा । कथमेक्कंहि देवगइमिदि एदेसिं दोन्हं पदाणं समाणाहिअरणत्तं ? ण, देवगदीए छक्कारयरूवाए समाणाहिअरणत्तस्स विरोहाभावा । अथवा एक्कं हि चेवेत्ति एत्थतण हि ' सो पुत्थे दट्ठयो, ण भाए । तेणेसत्यो हवइ - एक्कं चैव हि पुधं देवगई
"
तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यच तिर्यंचपर्यायोंसे मरणकर कितनी गतियों में जाते हैं ? ॥ १३४ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उपर्युक्त तिर्यंच एकमात्र देवगतिमें ही जाते हैं ॥ १३५ ॥
क्योंकि, असंख्यात वर्षकी आयुवाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यचोंके मन्दकषायपना होता है । अथवा, उन जीवोंमें देवायुको छोड़कर अन्य आयुओंके बन्धका अभाव है, अतएव वे देवगतिमें ही जाते हैं ।
शंका- सूत्र में 'एक्कंहि ' यह पद सप्तमी विभक्ति सहित है और ' देवगइं ' यह पद द्वितीया विभक्ति युक्त है, अतएव इन दोनों पदोंमें समानाधिकरणत्व कैसे बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि 'देवगदिं' इस पदके छहों कारकोंमें समानरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण दोनों पदोंमें समानाधिकरणत्वका कोई विरोध नहीं है । अर्थात् 'देवगदिं ' पदको अव्ययरूप मानकर उसका सब लिङ्गों और कारकोंके साथ सामञ्जस्य बैठाया जा सकता है । अथवा, 'एकं हि चेव' इस वाक्यांशमें ' हि ' शब्द ' स्फुट ' अर्थमें जानना चाहिये, विभक्तिके अर्थ में नहीं । इससे यह अर्थ होगा कि उपर्युक्त जीव ' एक ही
भावप्राभृत ७२. जिणलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा । ते जायंति अभव्या उवरिमगेवज्जपरियंतं ॥ परदो अंचतपद - ( ? ) तवदंसणणाणचरणसंपण्णा । णिग्गंथा जायंते भव्वा सव्वट्टसिद्धिपरियंतं ॥ ति. प. ८, ५५९ - ५६०.
१ संख्यातीतायुषां नूनं देवेष्वेवास्ति संक्रमः । निसर्गेण भवेत्तेषां यतो मन्दकषायता ।। तत्त्वार्थसार २, १६०. २ प्रतिषु — समाणाहिआवरणत्तं', मप्रतौ ' समाणाहिअवरणत्तं ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org