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१, ९-९, १३३.] चूलियाए गदियागदियाए तिरिक्खाणं गदाओ
सुगममेदं । एवं हि चेव देवगदिं गच्छंति ॥ १३२॥
कुदो ? देवाउअं मोत्तूण अण्णेसिमाउआणं तत्थ बंधाभावा । ण वाउवबंधेण विणा उप्पाओ अस्थि, तहाणुवलंभा।
देवेसु गच्छंता सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव आरणच्चुदकप्पवासियदेवेसु गच्छंति ॥ १३३ ॥
उवरि किण्ण गच्छंति ? ण, तिरिक्खसम्माइट्ठीसु संजमाभावा । संजमेण विणा ण च उवरि गमणमस्थि । ण मिच्छाइट्ठीहि तत्थुप्पज्जतेहि विउचारो, तेसिं पि भावसंजमेण विणा दव्वसंजमस्स संभवा ।
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त तिर्यंच जीव मरकर एकमात्र देवगतिको जाते हैं ॥ १३२ ॥
क्योंकि, देवायुको छोड़कर अन्य आयुओंका असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच जीवोंके बन्धका अभाव है। और आयुबंधके विना किसी गतिविशेषमें उत्पत्ति होती नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।
देवोंमें जानेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच सौधर्म-ईशान स्वर्गसे लगाकर आरण-अच्युत तकके कल्पवासी देवोंमें जाते हैं ॥ १३३ ॥
शंका-संख्यातवर्षायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच मरकर आरण-अच्युत कल्पसे ऊपर क्यों नहीं जाते?
समाधान नहीं, क्योंकि, तिर्यच सम्यग्दृष्टि जीवोंमें संयमका अभाव पाया जाता है । और संयमके विना आरण-अच्युत कल्पसे ऊपर गमन होता नहीं है । इस कथनसे आरण-अच्युत कल्पसे ऊपर उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टियोंके भी भावसंयम रहित द्रव्यसंयम होना संभव है।
१ त एवं सम्यग्दृष्टयः सौधर्मादिषु अच्युतान्तेषु जायन्ते । त. रा. ४, २१. २ अस्संजयभवियदव्वदेवाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगविज्जेसु । व्याख्याप्रज्ञप्ति १,२,२६. ३ प्रतिषु ' तत्थुप्पज्जंतीहि ' इति पाठः ।
४ देहादिसंगहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥ भावप्राभूत ५६. धृत्वा निग्रंथलिंगं ये प्रकृष्टं कुर्वते तपः। अन्त्यप्रैवेयकं यावदभव्याः खलु यान्ति ते ॥ तत्त्वार्थसार २, १६७.
५ ने रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा । ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले ॥
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