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________________ ४६४ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-९, १३१. णत्थि, ण तेण गुणेण ताए गदीए णिग्गमो' ति मोत्तूण कसायउवसामए । तिरिक्खा असंजदसम्मादिट्टी संखेज्जवस्साउआ तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगदसमाणा कदि गदीओ गच्छंति ? ॥ १३१ ॥ आयुकर्मका बंध नहीं होता, उस गुणस्थान सहित उस गतिसे निश्चयतः निर्गमन भी नहीं होता " ऐसा कषायउपशामकोंको छोड़ अन्य सर्व जीवोंके लिये नियम है । विशेषार्थ - जिस गुणस्थानमें जिस गतिमें आयुकर्म बंधता नहीं है, उस गुणस्थान सहित उस गतिसे निर्गमन भी नहीं होता । यह व्यवस्था इस प्रकार हैचारों गतियोंके जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमें आयुकर्मका बन्ध करते हैं अतएव उस गुणस्थान सहित उन गतियोंसे अन्य गतियोंमें जाते भी हैं। सातवीं पृथ्वीके नारकी जीवोंको छोड़ अन्य सब गतियोंके जीव सासादन गुणस्थान में आयुबन्ध करते हैं और इन गतियोंसे निकलते भी हैं, यहां नरकायु नहीं बंधती । सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुबन्ध किसी भी गतिमें नहीं होता और इसलिये किसी गतिसे उस गुणस्थान सहित निर्गमन भी नहीं होता । सप्तम पृथ्वीको छोड़कर शेष चारों गतियोंके अविरतसम्यदृष्टि जीव यथायोग्य मनुष्यायु और देवायुका बन्ध करते हैं और इसलिये उस गुणस्थान सहित निर्गमन भी उन गतियोंसे करते हैं। देशविरत गुणस्थान केवल तिर्यच और मनुष्य इन दो गतियोंमें ही होता है । इन दोनों गतियोंमें इस गुणस्थानमें आयुबन्ध देवगतिका होता है, और निर्गमन भी होता है । प्रमस और अप्रमत्त गुणस्थान केवल मनुष्यगतिमें पाये जाते हैं । इन दोनों गुणस्थानों में भी देवायुका बन्ध तथा निर्गमन संभव है । अप्रमत्त गुणस्थान में आयुबन्धका विच्छेद हो जाता है, अर्थात् अपूर्वकरण आदि सात गुणस्थानोंमें आयुबन्ध नहीं होता, पर उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानोंमें चढ़ते व उतरते हुए किसी भी गुणस्थान में मरण संभव है, तथा अयोगि गुणस्थान से केवालयका संसारसे निर्गमन होता है । इस प्रकार उपशमश्रेणी व अयोगि गुणस्थानमें तो जिस गुणस्थानमें आयुबन्ध नहीं होता उसमें भी निर्गमन संभव है, पर अन्य अवस्थामें निर्गमन उसी गुणस्थान सहित संभव है जिस गुणस्थान में आयुबन्ध भी संभव हो । तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच जीव तिर्यंचपर्यायोंसे मरण कर कितनी गतियों में जाते हैं ? ।। १३१ ॥ १. मिस्सा आहारस्स य खवगा चडमाणपरमपुव्वा य । पटमुत्रसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥ अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्तअंतं तु णत्थि मरणं तु । किदकरणिज्जं जाव दु सव्वपरट्ठाण अट्ठपदा ॥ गो. क. ५६०-५६१० २ अपमते देवाऊणिट्ठवणं चेव अस्थि ति ॥ गो. क. ९८. उवसामगेसु मरिदो देवत्तमचं समल्लियई ॥ गो. क. ५५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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