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________________ १२३. ] चूलियाए गदियागदियाए तिरिक्खाणं गदीओ [ ४६१ पंचिदिएस गच्छंता सण्णीसु गच्छंति, णो असण्णीसु ॥ १२२ ॥ सणीसु गच्छंता गन्भोवतिएसु गच्छंति, णो सम्मुच्छिंमेसु ॥ १२३ ॥ सासादन गुणस्थानका यहां भी निषेध है । ( देखो कर्मग्रंथ ४ गाथा ३, ४५, ४९ व पंचसंग्रह द्वार १, गा. २८-२९ ) प्रस्तुत षट्खंडागमके सूत्रोंमें व्यवस्था इस प्रकार है- सत्प्ररूपणाके सूत्र ३६ में एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके केवल एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही बतलाया गया है । उसी प्ररूपणा के कायमार्गणासंबंधी सूत्र ४३ में भी पृथ्वीकायादि पांचों एकेन्द्रिय जीवोंके केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहा गया है । द्रव्यप्रमाणानुगमके सूत्र ८८ आदिमें बादर पृथ्वीकायादि जीवोंकी गुणस्थान भेदके विना ही प्ररूपणा की गई है, जिससे उनमें एक ही गुणस्थान माना जाना सिद्ध होता है। क्षेत्रादिप्ररूपणाओंके सूत्रों में भी एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवोंके गुणस्थानभेदका कथन नहीं पाया जाता । किन्तु प्रस्तुत गति- आगति चूलिकाके ११९-१२३, १५१-१५५ व १७३ १७७ सूत्रोंमें क्रमशः तिर्यच, मनुष्य व देव गतिके सासादनसम्यक्त्वियोंके वायु और तेजकायिक जीवोंको छोड़कर शेष तीनों एकेन्द्रिय बादर जीवोंमें उत्पन्न होनेका सुस्पष्ट विधान व विकलेन्द्रियों एवं असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेका निषेध किया गया है । धवलाकारने अपने आलाप अधिकार में सासादनसम्यग्दृष्टियोंके पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्थामें केवल एक पंचेन्द्रियत्व व त्रसकायित्वका ही प्रतिपादन किया है । तथा पृथिवीकायादि स्थावर जीवोंके अपर्याप्त अवस्थामें भी केवल एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान बतलाया है । (देखो भाग २ पृ. ४२७, ४७८, ६०७ ) सत्प्ररूपणा के सूत्र ३६ की टीकामें धवलाकारने सासादनोंके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने व न होने संबंधी दोनों मतोंके संग्रह और श्रद्धान करनेपर जोर दिया है । पर स्पर्शनप्ररूपणा के सूत्र ४ की टीकामें उन्होंने यह मत प्रकट किया है कि सासादनोंका एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होना सत्प्ररूपणा और द्रव्यप्रमाण इन दोनोंके सूत्रोंके विरुद्ध है, और इसलिये उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये । सासादनसम्यक्त्वियोंके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने और फिर भी एकेन्द्रियों में सासादनगुणस्थानके सर्वथा अभाव पाये जानेका समन्वय उन्होंने इस प्रकार किया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, किन्तु आयु छिन्न होनेके प्रथम समयमें ही उनका सासादन गुणस्थान छूट जाता है और वे मिध्यादृष्टि हो जाते हैं, इससे एकेन्द्रियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें भी सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता । पंचेन्द्रिय तिर्यचों में जानेवाले संख्यातवर्षायुष्क सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच संज्ञी जीवों में जाते हैं, असंज्ञियोंमें नहीं ॥ १२२ ॥ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें जानेवाले उपर्युक्त तिर्यंच गपक्रान्तिकों में जाते हैं, सम्मूच्छिमोंमें नहीं ।। १२३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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