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छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ९-९, १२१. एइंदिएसु गच्छंता बादरपुढवीकाइय-बादरआउक्काइय-बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएसु गच्छंति, णो अपज्जत्तेसु ॥१२१॥
एकेन्द्रियोंमें जानेवाले संख्यातवर्षायुष्क सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तकोंमें ही जाते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥१२१॥
विशेषार्थ-सासादनसम्यक्त्वी जीव मरकर किन पर्यायों में उत्पन्न हो सकता है इस विषयपर जैनग्रंथकारों में बड़ा मतभेद पाया जाता है। ये भिन्न भिन्न मत इस प्रकार हैं
. तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीकामें कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनप्रमाण बतलाते हुए एक ऐसे मतका उल्लेख किया है कि जिसके अनुसार सासादन जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न नहीं होते ( देखो स. सि. १, ८ स्पर्शनप्ररूपणा)। किन्तु उन्होंने तिर्यंच, मनुष्य व देव गतिवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंके स्पर्शनका जो प्रमाण बतलाया है उससे स्पष्ट होता है कि उन्हें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होना स्वीकार था । (देखो शुतसागरी टीकासे लिये गये टिप्पण)।
तत्त्वार्थराजवार्तिक और गोम्मटसार जीवकांडमें पंचेन्द्रियोंको छोड़कर शेष समस्त एकेन्द्रियों व विकलेन्द्रियोंमें केवल एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका ही विधान पाया जाता है (त. रा. ९,७ व गो. जी. गा. ६७७)। किन्तु कर्मकांडमें एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय जीवोंकी अपर्याप्त अवस्थामें सासादनसम्यक्त्वका विधान किया गया है। पर लब्ध्यपर्याप्तक, साधारण, सूक्ष्म तथा तेज और वायुकायिक जीवोंमें उसका निषेध है (गा. ११३-११५)।
अमितगति आचार्यने अपने पंचसंग्रह ग्रंथमें (पृ. ७५) सातों अपर्याप्त और संक्षी पर्याप्त, इन आठ जीवसमासोंमें सासादनसम्यक्त्वका विधान किया है, जिसके अनुसार विकलेन्द्रिय तथा सूक्ष्म जीवों में भी सासादनसम्यग्दृष्टिका उत्पन्न होना संभव है।
भगवती, प्रज्ञापना व जीवाभिगम आदि श्वेताम्बर आगम ग्रंथोंके मतानुसार एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादन गुणस्थान नहीं होता, पर द्वीन्द्रिय आदि विकलेन्द्रियों में होता है। इसके विपरीत श्वेताम्बर कर्मग्रंथों में एकेन्द्रिय व द्वीन्द्रिय आदि बादर अपर्याप्तकोंमें सासादन गुणस्थानका विधान पाया जाता है। पर तेज और वायुकायिक जीवोंमें
कर्मग्रंथ ४, ४९. सासने तु विग्रहगत्यपेक्षया सप्तापर्याप्ताः संज्ञी पूर्णोऽष्टमः । पंचसंग्रह- अमितगति पृ. ७५. वज्जिय ठाणचउक्कं तेऊ वाऊ य णरयसुहुमं च । अण्णत्थ सबठाणे उवज्जदे सासणो जीवो ॥ (तत्वार्थसूत्रस्य श्रुतसागरीटीकायां उद्धृता गाथा).
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