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________________ १, ६-९, १२०.] चूलियाए गदियागदियाए तिरिक्खाणं गदीओ सुगममेदं । तिण्णि गदीओ गच्छंति तिरिक्खगदि मणुसगदिं देवगदिं चेदि ॥ ११९ ॥ णिरयगदी णस्थि । कुदो ? तिरिक्ख-मणुससासणाणं णिरयगइगमणपरि णामाभावा। तिरिक्खेसु गच्छंता एइंदिय-पंचिंदिएसु गच्छंति, णो विगलिंदिएसु ॥ १२०॥ जदि एइदिएसु सासणसम्माइट्ठी उप्पज्जदि तो पुढवीकायादिसु दो गुणट्ठाणाणि होंति त्ति चे ण, छिण्णाउअपढमसमए सासणगुणविणासादो। यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त तिर्यंच जीव तीन गतियोंमें जाते हैं- तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति ॥ ११९॥ उपर्युक्त तिर्यचौकी नरकमें गति नहीं होती, क्योंकि सासादनगुणस्थानवर्ती तिर्यंच और मनुष्योंके नरकगतिमें गमन करने योग्य परिणामोंका अभाव पाया जाता है। तिर्यंचोंमें जानेवाले संख्यात वर्षकी आयुवाले सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यच एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें जाते हैं, विकलेन्द्रियोंमें नहीं ॥ १२० ॥ शंका - यदि एकेन्द्रियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, तो पृथिवीकायादिक जीवोंमें मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होना चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि आयु क्षीण होनेके प्रथम समयमें ही सासादन गुणस्थानका विनाश हो जाता है । १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपरियन्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । xxx कायानुवादेन पृथिवीकायादिषु वनस्पतिकायान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । (स्पर्शने) लेश्यानुवादेन... ... अथवा येषां मस्ते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश भागा न दत्ताः । स. सि. १, ८. एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रयासंज्ञिपंचेन्द्रियेषु एकमेव गुणस्थानमाद्यम् । पंचेन्द्रियेषु संज्ञिघु चतुर्दशापि सन्ति । पृथिवीकायादिषु वनस्पत्यन्तेषु एकमेव प्रथमम् । त. रा. ९, ७. सेसिंदियकाये मिच्छं गुणट्ठाणं । गो जी. ६७७. पुण्णिदरं विगिविगले तत्थुप्पण्णो है सासणो देहे । पज्जतिं ण वि पावदि इदि णरतिरियाउगं णथि । गो. क. ११३. इगिविगलेसु जुयलं । पंचसंग्रह १, २८. बायरअसण्णिविगले अपजि पढमविय । कर्मग्रंथ ४, ३. सब जियठाण मिच्छे सग सासणि । कर्मग्रंथ ४, ४५. सासणभावे नाणं विउवगाहारगे उरलमिस्सं । नेगिंदिसु सासाणो नेहाहिगयं सुयमयं पि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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